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एकादश ]
साधुधर्मविधि पञ्चाशक
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उत्सर्गापवादयोः विज्ञायकाः सेवका यथाशक्तिः । भावविशुद्धिसमेता आज्ञारुचयश्च सम्यगिति ।। ४१ ।। सर्वत्राप्रतिबद्धा मैत्र्यादिगुणान्विताश्च नियमेन । सत्त्वादिषु भवन्ति दृढमिति आयतमार्गतल्लिप्सा ।। ४२ ।। एवंविधास्तु ज्ञेयाः सर्वनयमतेन समयनीत्या । भावेन भावितैः सकृत् चरणगुणस्थिताः साधवः ।। ४३ ।।
तीर्थङ्कर की आज्ञा में रहने वाले साधु पाँच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त होते हैं। साधु धर्म के प्रति अनुरागी होते हैं। धर्म में दृढ़ होते हैं। इन्द्रियों और कषायों के विजेता होते हैं। गम्भीर होते हैं। बुद्धिमान होते हैं। प्रज्ञापनीय और महासत्त्व वाले होते हैं ।। ४० ।।
वे उत्सर्ग और अपवाद को जानने वाले तथा यथाशक्ति उनका पालन करने वाले होते हैं। विशुद्धभाव वाले होते हैं। स्वाग्रह से मुक्त होकर आगम के प्रति सम्मानभाव वाले होते हैं ।। ४१ ॥
द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि में प्रतिबन्धरहित, सभी जीवों, गुणाधिक जीवों, दुःखी जीवों और अविनीत जीवों पर क्रमश: मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य भावना वाले अवश्य होते हैं। वे उपर्युक्त जीवों में दृढ़ भावना वाले होते हैं। समिति-गुप्ति आदि से ज्ञानादि रूप मोक्षमार्ग की आराधना करने की इच्छा वाले होते हैं ।। ४२ ।।
शास्त्र से परमार्थ को जानने वालों को इस प्रकार हमेशा चारित्र गुणों में रहने वाले साधुओं को सभी नयों व शास्त्रानुसार साधु के रूप में जानना - चाहिए ।। ४३ ॥
ज्ञान-दर्शन के बिना चारित्र नहीं णाणम्मि दंसणम्मि य सति णियमा चरणमेत्थ समयम्मि । परिसुद्धं विण्णेयं णयमयभेया जओ भणियं ।। ४४ ॥ णिच्छयणयस्स चरणायविघाए णाणदंसणवहोऽवि । ववहारस्स उ चरणे हयम्मि भयणा उ सेसाणं ॥ ४५ ॥ ज्ञाने दर्शने च सति नियमाच्चरणमत्र समये । परिशुद्धं विज्ञेयं नयमतभेदाद्यतो भणितम् ।। ४४ ॥ निश्चयनयस्य चरणात्मविघाते ज्ञानदर्शनवधोऽपि । व्यवहास्य तु चरणे हते भजना तु शेषाणाम् ।। ४५ ।।
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