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________________ एकादश] साधुधर्मविधि पञ्चाशक १९५ य इह भवन्ति सुपुरुषाः कृतज्ञकाः न खलु तेऽवमन्यन्ते । कल्याणभाजनत्वेन गुरुजनं उभयलोकहितम् ।। ३६ ।। मनुष्य लोक में जो उत्तम और कृतज्ञ प्रकृति के हैं, वे ऐहिक और पारलौकिक कल्याण के पात्र हैं, इसलिए वे उभयलोक में हितकर गुरु की अवज्ञा नहीं करते हैं ।। ३६ ।। गुरुकुल का त्याग करने वालों की निन्दा जे उ तह विवज्जत्था सम्मं गुरुलाघवं अयाणंता । सग्गाहा किरियरया पवयणखिंसावहा खुद्दा ।। ३७ ।। पायं अहिण्णगंठी तमा उ तह दुक्करंपि कुव्वंता । बज्झा व ण ते साहू धंखाहरणेण विण्णेया ।। ३८ ॥ . ये तु तथा विपर्यस्ताः सम्यग् गुरुलाघवमजानन्तः । स्वग्राहात् क्रियारता: प्रवचनखिसावहाः क्षुद्राः ।। ३७ ।। प्राय अभिन्नग्रन्थय: तमसस्तु तथा दुष्करमपि कुर्वन्तः । बाह्या इव न ते साधवो ध्वांक्षोदाहरणेन विज्ञेयाः ।। ३८ ।। जो साधु उत्तम और कृतज्ञ न होने के कारण गुरु की अवज्ञा करते हैं, वे साधु नहीं है, क्योंकि वैसे साधु पाप के अल्प-बहुत्व (गुरुकुलवास और एकाकी विहार के लाभालाभ) को अच्छी तरह जानते नहीं हैं। वे अनेक साधुओं के साथ रहने में अशुद्ध आहार और परस्पर स्नेह आदि दोष मानते हैं। वे निर्दोष भिक्षा, आतापना, मासक्षमण आदि अनुष्ठान अपनी मति के अनुसार करते हैं। वैसे गुरु की अवज्ञा करने वाले साधु आगम से निरपेक्ष प्रवृत्ति करने वाले होने के कारण जिनशासन को निन्दा का पात्र बनाते हैं और गुरु की अवज्ञा करने से स्वत: क्षुद्र होते हैं || ३७ ॥ ऐसे साधु प्रायः एक बार भी ग्रन्थि का भेद नहीं करते हैं, क्योंकि मिथ्यादृष्टि होने के बावजूद यदि एक बार भी ग्रन्थिभेद किया होता तो ऐसी खोटी 3 प्रवृत्ति नहीं करते। वे अज्ञानता से मासक्षमण आदि दुष्कर कार्य भी करते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि तापसों की भाँति वे जिनाज्ञा से रहित होने के कारण साधु नहीं हैं। इस विषय को शास्त्र में दिये गये कौए के उदाहरण से जानना चाहिए - कौए का उदाहरण इस प्रकार है – स्वादिष्ट, शीतल व सुगन्धित पानी वाले तालाब के किनारे कुछ कौए बैठे थे । उनमें से कुछ कौए प्यास लगने पर पानी की खोज करने लगे। वे मृगतृष्णा के सरोवरों की ओर जाने लगे। उस समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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