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एकादश]
साधुधर्मविधि पञ्चाशक
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को घर में आया देखकर विषय-सेवन की माँग कर सकती हैं। ऐसे में साधु यदि विषय-सेवन करता है तो संयम भंग होगा, यदि न करे तो वह स्त्री उसे समाज में अपमानित कर सकती है।
२. कुत्तों आदि के काटने का भय होता है।
३. एकाकी साधु पर साधु के प्रति द्वेष रखने वाला व्यक्ति हमला कर सकता है।
४. एक ही साथ तीन घरों से भिक्षा लेनी हो तो अकेले साधु के द्वारा सब तरफ उपयोग नहीं रख सकने के कारण भिक्षा अशुद्ध होती है।
५. भिक्षा अशुद्ध होने से पहला व्रत भंग होता है। अकेला होने से किसी के द्वारा प्राणातिपातविरमणविराधना सम्बन्धी प्रश्न पूछने पर नि:शंक रूप से जवाब देने से मृषावाद दोष लगता है। घर में खुली पड़ी वस्तु को लेने की इच्छा होने से अदत्तादान दोष लगता है। स्त्रीमुख देखने से उत्पन्न राग से परिग्रह दोष लगता है। इसलिए उपर्युक्त दोषों के निवारणार्थ सदैव विहार किसी को साथ में लेकर ही करना चाहिए ।। ३१ ।।
अगीतार्थ के स्वतन्त्र विहार का निषेध गीयत्थो य विहारो बीओ गीयत्थमीसओ भणिओ । एत्तो तइयविहारो णाणुण्णाओ जिणवरेहिं ।। ३२ ॥ गीतार्थश्च विहारो द्वितीयो गीतार्थमिश्रको' भणित: । इतः तृतीयविहारो नानुज्ञातो जिनवरैः ।। ३२ ।।
भगवान् जिनेन्द्रदेव ने एक गीतार्थ का और दूसरा गीतार्थ की निश्रा में रहने वाले साधु का विहार प्रतिपादित किया है। इसके अतिरिक्त तीसरा कोई विहार नहीं कहा है ।। ३२ ।।
दशवैकालिक का वचन विशेष विषय वाला है ता गीयम्मि इमं खलु तदण्णलाभंतरायविसयंति । सुत्तं अवगंतव्वं णिउणेहिं तंतजुत्तीए ।। ३३ ।। तद्गीते इदं खलु तदन्यलाभान्तरायविषयमिति । सूत्रमवगन्तव्यं निपुणैः तन्त्रयुक्त्या ।। ३३ ।।
इस प्रकार एकाकी विहार सम्बन्धी आगम-वचन गीतार्थ साधु के लिए है, सामान्य साधु के लिए नहीं। गीतार्थ साधु भी तभी एकाकी विहार कर सकता १. बहुश्रुतसमन्वितानामगीतार्थानामपि साधूनां यः स गीतार्थमिश्रकः ।
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