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________________ साधुधर्मविधि पञ्चाशक गुरुगुणरहितस्तु गुरुः न गुरुः विधित्यागस्तु तस्येष्टः । अन्यत्र संक्रमण न तु एकाकित्वेनेति ।। २४ ॥ गुरु बनने के लिये आवश्यक सम्यग्ज्ञान और सदनुष्ठान रूप गुणों से रहित गुरु गुरु (आचार्य) नहीं होता है, इसलिए ऐसे गुरु का यथाविधि त्याग करना चाहिए और दूसरे सच्चे गुरु की निश्रा में रहना चाहिए, अकेले नहीं ।। २४ ।। एकादश ] विशिष्ट साधु की अपेक्षा से एकाकी विहार का विधान जंपि य ण वा लभेज्जा एक्कोऽविच्चादि भासियं सुत्ते । एयं विसेसविसायं णायव्वं बुद्धिमंतेहिं ।। २५ ।। यदपि च न वा लभेत एकोऽपीत्यादि भाषितं सूत्रे । एतद्विशेषविषयं ज्ञातव्यं बुद्धिमद्भिः ।। २५ ।। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि अपने से अधिक गुणोंवाला या समान गुणोंवाला निपुण सहायक न मिले तो पापकर्मों से निवृत्त होता हुआ विषयों में अनासक्त रहकर अकेला ही विहार करे। यह विधान विशिष्ट साधु की अपेक्षा से है, सर्व सामान्य साधुओं के लिए नहीं ।। २५ ।। अगीयस्स । पावं अणायरंतो तत्थुत्तं ण य इमं अण्णाणी किं काहीच्चादिसुत्ताउ पापमनाचरन् तत्रोक्तं न च अज्ञानी किं करिष्यतीत्यादिश्रुतात् सिद्धमिदम् ॥ २६ ॥ दशवैकालिकसूत्र में एकाकी विहारी को पाप का त्याग करने वाला कहा सिद्धमिणं ।। २६ ।। इदमगीतस्य । गया है, किन्तु अगीतार्थ से पाप का त्याग नहीं हो सकता है। 'अज्ञानी क्या कर सकता है ?' इस आगम वचन से उपर्युक्त बात सिद्ध हो जाती है ।। २६ ।। एकाकी विहार विशिष्ट साधु की अपेक्षा से है णायव्वो । असमत्तो ।। २७ ।। इस कथन का समर्थन जाओ य अजाओ य दुविहो कप्पो उ होइ एक्केक्कोऽवि यदुविहो समत्तकप्पो य गीयत्थो जायकप्पो अग्गीओ खलु भवे अजाओ उ । पणगं समत्तकप्पो तदूणगो होइ उउबद्धे वासासु उ सत्त समत्तो तदूणगो असमत्ताजायाणं ओहेण ण किंचि एत्तो पडिसेहाओ एएसिँ अतोऽवि इमं विसेसत्रिसयं असमत्तो ॥ २८ ॥ इयरो | आहव्वं ।। २९ ।। Jain Education International १९१ - सामण्णणिसेहमोऽवगंतव्वो । For Private & Personal Use Only व्वं ।। ३० ।। www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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