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एकादश ]
साधुधर्मविधि पञ्चाशक
तथा जिस प्रकार माता-पिता अपनी कन्या को अनेक गुणों से समृद्ध करके कुलीन व्यक्ति से विवाह कर देते हैं, उसी प्रकार गुरु भी शास्त्रज्ञ शिष्य को आचार्य बना देते हैं।
गुरुकुल में विनयपूर्वक रहने वाले साधुओं के क्षमादि गुणों की भी सिद्धि होती है ।। १८ ।।
क्षमादि दस प्रकार के साधु धर्म
खंती य मद्दवऽज्जव मुत्ती तव संजमे य बोद्धव्वे ।
सच्चं सोयं आकिंचणं च बंभं च जतिधम्मो ॥ १९ ॥
क्षान्तिश्च मार्दवार्जवमुक्तिः तपः संयमश्च बोद्धव्यः । शौचमाकिञ्चन्यञ्च ब्रह्मञ्च यतिधर्मः ।। १९ ।
सत्यं
क्षान्ति - क्रोधनिग्रह, मार्दव - मृदुता, आर्जव - सरलता, मुक्ति-लोभत्याग, तप - अनशन आदि, संयम - पृथ्वीकायिक आदि जीवों का संरक्षण, सत्य - सत्य बोलना, शौच - भावशुद्धि, आकिञ्चन्य- परिग्रह का त्याग और ब्रह्म - ब्रह्मचर्य दस साधु के धर्म हैं ।। १९ ।।
ये
गुरुकुल के बिना क्षमादि की विशुद्धि नहीं होती गुरुकुलवासच्चाए णेयाणं हंदि सुपरिसुद्धित्ति । सम्मं णिरूवियव्वं एयं सति णिउणबुद्धीए ।। २० ।। गुरुकुलवासत्यागे नैतेषां हंदि सुपरिशुद्धिरिति । सम्यक् निरूपयितव्यमेतत् सकृत् निपुणबुद्ध्या ॥ २० ॥
गुरुकुलवास का त्याग होने पर इन क्षमादि दश साधु-धर्मों की अच्छी तरह शुद्धि नहीं होती है, अर्थात् इन धर्मों में पूर्णता नहीं आती है, इसलिए इस पर निरन्तर सूक्ष्मबुद्धि से विचार करना चाहिए ।। २० ।।
गुरुकुल के बिना क्षमादि गुणों का अभाव भी होता है खंतादभावओ' च्चिय णियमेण तस्य होति चाओत्ति' । बंभं ण गुत्तिविगमा सेसाणिवि एव क्षान्त्याद्यभावत एव नियमेन तस्य भवति त्याग ब्रह्मं न गुप्तिविगमात् शेषाण्यपि एवं
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१. 'भावउ' इति मूले पाठः । २. 'चाउत्ति' इत्ति मूले पाठः ।
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जोइज्जा ।। २१ ।।
इति । योजयेत् ॥ २१ ॥
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