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पञ्चाशकप्रकरणम्
[एकादश
तन्न चरणपरिणाम एतदसमञ्जसमिह भवति । आसन्नसिद्धिकानां जीवानां तथा च भणितमिदम् ।। १५ ।। ज्ञानस्य भवति भागी स्थिरतरको दर्शने चारित्रे च । धन्या यावत्कथं गुरुकुलवासं न मुञ्चन्ति ।। १६ ।।
गुरुकुल का त्याग करने से भगवान् की आज्ञा का त्याग होता है (क्योंकि भगवान् की आज्ञा तो गुरुकुल न छोड़ने की है) और भगवान् की आज्ञा का त्याग होने पर इहलोक और परलोक दोनों का त्याग होता है, क्योंकि गुरुकुल का त्याग करने वाले को उभयलोक से विरुद्ध प्रवृत्ति करने से कोई रोकने वाला नहीं होता है ।। १४ ।।
____ चारित्र के फल की प्राप्ति स्वरूप निकट भविष्य में मुक्त होने वाले जीवों (साधुओं) के गुरुकुलवास के त्याग रूप अनुचित कार्य साधु धर्म के अनुकूल नहीं होता है। क्योंकि आगम में ऐसा कहा है कि उस समय वह साधु श्रुतज्ञान आदि का पात्र बनता है तथा दर्शन और चारित्र में अधिक स्थिर होता है। अत: वे धन्य हैं, जो आजीवन गुरुकुलवास का त्याग नहीं करते हैं ।। १५-१६ ।। गुरुकुल में ही चारित्र का पूर्ण पालन और क्षमा आदि की वृद्धि होती है
तत्थ पुण संठिताणं आणा आराहणा ससत्तीए। अविगलमेयं जायति बज्झाभावेऽवि भावेणं ।। १७ ॥ कुलवहुणायादीया एत्तो चिय एत्थ दंसिया बहुगा। एत्थेव संठियाणं खंतादीणंपि सिद्धित्ति ।। १८ ॥ तत्र पुनः संस्थिनामाज्ञाऽऽराधनात् स्वशक्त्या। अविकालमेतज्जायते बाह्याभावेऽपि भावेन ।। १७ ।। कुलवधूज्ञातादयो यत एवात्र दर्शिता बहुकाः । अत्रैव संस्थितानां क्षान्त्यादीनामपि सिद्धिरिति ।। १८ ॥
गुरुकुल में रहने वाले साधुओं के यथाशक्ति आज्ञाराधन (जिनोपदेशपालन) से चारित्र का सम्पूर्ण पालन होता है। गुरुकुल में रहते हुए अस्वस्थता के कारण प्रतिलेखन आदि रूप चारित्र बाहर से अपूर्ण होने पर भी भाव से उसका चारित्र पूर्ण होता है ।। १७ ॥
_अत: गुरुकुल में रहने वाले का पूर्णतया चारित्र पालन होता है। इसलिए गुरुकुल का त्याग नहीं करने का उपदेश देने के लिए कुलवधुओं आदि का दृष्टान्त दिया गया है। जिस प्रकार कुलवधुएँ अनेक प्रतिकूलताओं के बाद भी श्वसुर-गृह का त्याग नहीं करती हैं, उसी प्रकार साधु को भी गुरुकुलवास नहीं छोड़ना चाहिए
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