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एकादश ]
__ साधुधर्मविधि पञ्चाशक
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आज्ञारुचे: चरणमाज्ञयैव इदमिति वचनात् । इतोऽनाभोगेऽपि प्रज्ञापनीयोऽयं भवति ।। १२ ॥
जिसको आप्तोपदेश में रुचि हो उसी को चारित्र प्राप्त होता है, क्योंकि आप्त की आज्ञा से ही चारित्र प्राप्त होता है, ऐसा आगमवचन है। आज्ञा में रुचि रखने वाले को प्राय: अज्ञान नहीं होता है, फिर भी यदि किसी विषय में अज्ञानतावश कोई असत् प्रवृत्ति हो जाये तो उसे सुखपूर्वक समझाया जा सकता है। इस प्रकार आज्ञा में रुचि रखने वाले जीव को प्रज्ञापनीय होने से चारित्र प्राप्त होता है। इसलिए 'आज्ञाप्रधान शुभानुष्ठान धर्म है' ऐसा कहा जाता है ।। १२ ।।
साधु के लिए जिन की आज्ञा एसा य परा आणा पयडा जं गुरुकुलं ण मोत्तव्वं । आचारपढमसुत्ते एत्तो च्यिय दंसियं एयं ।। १३ ।। एषा च परा आज्ञा प्रकटा यद् गुरुकुलं न मोक्तव्यम् । आचारप्रथमसूत्रे यत एव दर्शितमेतत् ।। १३ ।।
यह स्पष्ट और प्रकृष्ट जिनाज्ञा है कि गुरुकुलवास का त्याग नहीं करना चाहिए (क्योंकि प्रकृष्ट अर्थ अर्थात् मोक्ष के साधन रूप धर्म का उपाय गुरुकुलवास है। यह जिनाज्ञा गुरुकुलवास न छोड़ने की आज्ञा देती है। इसलिए जिनाज्ञा प्रकृष्ट का साधन बताने वाली होने से प्रकृष्ट है)। यही कारण है कि आचाराङ्ग के प्रथमसूत्र में श्रीसुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि “सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं'– हे आयुष्मान् जम्बू ! गुरुकुलवास में (भगवान् के पास) रहते हुए मैंने सुना है कि भगवान् ने ऐसा कहा है कि गुरुकुलवास का त्याग नहीं करना चाहिए ।। १३ ।।
गुरुकुल का महत्त्व एयम्मि परिच्चत्ते आणा खलु भगवतो परिच्चत्ता । तीए य परिच्चागे दोण्हवि लोगाण चाउत्ति ।। १४ ।। ता न चरणपरिणामे एयं असमंजसं इहं होति । आसण्णसिद्धियाणं जीवाण तहा य भणियमिणं ॥ १५ ॥ णाणस्स होइ भागी थिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धण्णा आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति ।। १६ ॥ एतस्मिन् परित्यक्ते आज्ञा खलु भगवतः परित्यक्ता । तस्याश्च परित्यागे द्वयोरषि लोकयोः त्याग इति ।। १४ ॥
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