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पञ्चाशकप्रकरणम्
[एकादश
उत्तर : अगीतार्थ गुरुकुलवास में गीतार्थ की आज्ञा का पालन करने के कारण गीतार्थ है। गीतार्थ के लिए शुभानुष्ठान का पालन दुष्कर नहीं है।
प्रश्न : अगीतार्थ गीतार्थ की आज्ञा का पालन कैसे करता है ?
उत्तर : उस प्रकार के ज्ञान से अगीतार्थ यह तो जानता ही है कि मेरे गुरु आगम के ज्ञाता हैं और मेरे हितकारी हैं - इसी ज्ञान से वह गीतार्थ की आज्ञा का पालन करता है ॥ ९ ॥
चारित्तओ च्चिय दढं मग्गणुसारी इमो हवइ पायं । एत्तो हिते पवत्तति तह णाणातो सदंधोव्व ।। १० ॥ चारित्रत एव दृढं मार्गानुसारी अयं भवति प्रायः । इत हिते प्रवर्तते तथा ज्ञानात् सदन्धवत् ।। १० ।।
चारित्र से ही प्राय: चारित्री अतिशय मार्गानुसारी (मोक्षमार्ग के अनुकूल प्रवृत्ति करने वाला) बनता है। मार्गानुसारी होने के कारण गुरु के प्रति तथाविध ज्ञान अर्थात् - ये मेरे गुरु आगम ज्ञाता हैं और मेरे हितकारी हैं - ऐसा ज्ञान होता है। इस ज्ञान के कारण गुर्वाज्ञा-पालन आदि हितकारी कार्यों में उसकी प्रवृत्ति होती है। इस विषय में सदन्ध का उदाहरण द्रष्टव्य है - जिस प्रकार एक अच्छा अन्धा अपने सहायक के वचन के अनुसार ही वर्तन करके अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है, उसी प्रकार मार्गानुसारी अगीतार्थ चारित्री भी गुर्वाज्ञापालनादि हितकारी कार्यों में प्रवृत्ति करता है ।। १० ।।
अंधोऽणंधो व्व सदा तस्साणाए तहेव लंघेइ । भीमंपि हु कंतारं भवकंतारं इय अगीतो ।। ११ ।। अन्धोऽनन्ध इव सदा तस्याज्ञया तथैव लवयति । भीममपि खलु कान्तारं भवकान्तारमित्यगीतः ।। ११ ।।
जिस प्रकार अन्धा व्यक्ति नेत्रवाले के कथनानुसार चलकर नेत्रवान् की ही तरह भयंकर जंगल पार कर लेता है, उसी प्रकार अगीतार्थ गुर्वाज्ञापालन आदि से गीतार्थ की तरह संसाररूपी जंगल पार कर लेता है ॥ ११ ॥
आज्ञा-प्रधान शुभानुष्ठान ही साधु धर्म है - इस विषय का
आगमवचन से समर्थन । आणारुइणो चरणं आणाए च्चिय इमंति वयणाओ । एत्तोऽणाभोगम्मिवि पण्णवणिन्जो इमो होइ ।। १२ ॥
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