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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ एकादश
चारित्र है। कषायरहित चारित्र को श्रेष्ठ चारित्र कहा है, इसलिए कषायरहित चारित्र यथाख्यात चारित्र है। यह चारित्र उपशमक और क्षपक छद्मस्थ वीतराग तथा सयोगीकेवली और अयोगीकेवली को होता है ।। ३-४ ॥
चारित्र के छेदोपस्थापन आदि भेद भी सामायिक के ही भेद हैं, इसलिए इस प्रकरण में सामायिक का ही विवेचन किया जायेगा, छेदोपस्थापनादि का नहीं।
सामायिक का स्वरूप समभावो सामाइयं तणकंचण-सत्तुमित्तविसओत्ति । निरभिस्संगं चित्तं उचियपवित्तिप्पहाणं च ॥ ५ ॥ समभावः सामायिकं तृणकञ्चन-शत्रुमित्रविषय इति । निरभिष्वङ्गं
चित्तमुचितप्रवृत्तिप्रधानश्च ।। ५ ।। तृण-स्वर्ण रूप निर्जीव वस्तुओं में और शत्रु-मित्र रूप चेतन पदार्थों में समभाव रखना सामायिक है, अर्थात् निरभिष्वंग (रागद्वेषरहित) और उचित प्रवृत्ति से युक्त मन उत्तम सामायिक है। यहाँ केवल निरभिष्वंग ही नहीं, अपितु उचितप्रवृत्ति सहित चित्त ही सामायिक है – ऐसा जानना चाहिए ॥ ५ ॥
ज्ञान-दर्शन के बिना सामायिक नहीं होगा सति एयम्मि उ णियमा णाणं तह दंसणं च विण्णेयं । एएहिं विणा एयं ण जातु केसिंचि सद्धेयं ॥ ६ ॥ सति एतस्मिंस्तु नियमाद् ज्ञानं तथा दर्शनञ्च विज्ञेयम् । एताभ्यां विना एतन्न जातु केषाञ्चित् श्रद्धेयम् ॥ ६ ॥
सामायिक के होने पर ज्ञान और दर्शन अवश्य होते हैं। किन्त ज्ञान और दर्शन के बिना सामायिक नहीं हो सकती है। इसलिए ज्ञान और दर्शन के बिना सामायिक पर श्रद्धा नहीं करनी चाहिए ।। ६ ।।
विशिष्ट श्रुतरहित चारित्री को भी ज्ञान और दर्शन होता है . गुरुपारतंत णाणं सद्दहणं एयसंगयं चेव । एत्तो उ चरित्तीणं मासतुसादीण निद्दिटुं ।। ७ ।। गुरुपारतन्त्र्यं ज्ञानं श्रद्धानमेतत्सङ्गतञ्चैव । अतस्तु चारित्रीणां माषतुषादीनां निर्दिष्टम् ।। ७ ।।
ज्ञान-दर्शन के बिना सामायिक नहीं होती है, इसीलिए आगम में प्रसिद्ध अति-जड़, मासतुस आदि साधुओं को भी गुरु के प्रति निष्ठा रूप ज्ञान और उस
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