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________________ एकादश] साधुधर्मविधि पञ्चाशक १८३ जघन्य हैं - निर्विशमानक (वर्तमान में परिहारविशुद्धि करने वाले साधु निर्विशमानक हैं) और निर्विष्टकायिक (जिसने परिहारविशुद्धि का सेवन कर लिया हो वह निर्विष्टकायिक साधु है), परिहारविशुद्धि चारित्र साधु से अभिन्न होने से उपर्युक्त चारित्र दो प्रकार का होता है। . इस चारित्र में नौ साधुओं का समूह होता है, जिनमें से चार परिहार तपका सेवन करें और दूसरे चार उनकी सेवा करें और एक वाचनाचार्य हो। परिहार तप जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का होता है, जो इस प्रकार है - मध्यम उत्कृष्ट गर्मी एक दिन का छट्ठ : दो अट्ठम : तीन दिन का उपवास उपवास उपवास सर्दी दो दिन का उपवास तीन दिन का उपवास चार दिन का उपवास बरसात तीन दिन का उपवास चार दिन का उपवास पाँच दिन का उपवास पारणे में आयम्बिल करें तथा सात प्रकार की भिक्षा (असंसृष्टा, संसृष्टा, उद्धृता, अल्पलेपा, अवगृहीता, प्रगृहीता तथा उज्झितधर्मा) में से प्रथम दो भिक्षाएँ कभी भी न लें। शेष पाँच में से प्रतिदिन 'आज मुझे दो ही भिक्षाएँ (एक आहार और एक पानी) लेनी है' ऐसा दो भिक्षा का अभिग्रह करके तीन भिक्षा का त्याग करें, ऐसा छह महीने तक करें। शेष पाँच साधु छह महीने तक प्रतिदिन उपर्युक्त प्रकार से दो भिक्षा का अभिग्रहपूर्वक आयम्बिल करें। फिर जो सेवा करने वाले थे वे छह महीने तक परिहार तप करें और जो पहले परिहार तप करने वाले थे वे उनकी सेवा करें। फिर वाचनाचार्य छह महीने तक परिहार तप करें और शेष आठ में से सात उनकी सेवा करें और एक वाचनाचार्य बने। इस प्रकार परिहारकल्प का समय अठारह महीना होता है। इस कल्प के पूर्ण होने पर जिनकल्प को स्वीकार करें अथवा पच्छ में रहें। जिसने तीर्थङ्कर के पास परिहारकल्प स्वीकार किया हो, वह उनके पास रह सकता है, दूसरे किसी के पास नहीं। ४. सूक्ष्मसम्पराय - जिससे संसारभ्रमण होता है उसे सम्पराय कहते हैं। कषायों से संसारभ्रमण होता है, इसलिए कषायें सम्पराय हैं। कषायों के अत्यन्त सूक्ष्म होने पर सूक्ष्मसम्पराय होता है। यह दो प्रकार का होता है - १. विशुद्ध्यमानक (क्षपक और उपशम श्रेणी में उत्तरोत्तर बढ़ने वाले) और २. क्लिश्यमानक (उपशम श्रेणी में गिरने वाले)। ५. यथाख्यात - जिनेन्द्रदेव ने जैसा कहा है वैसा चारित्र यथाख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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