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पञ्चाशकप्रकरणम्
[एकादश
तत्तो य अहक्खायं खायं सव्वम्मि जीवलोगम्मि । जं चरिऊण सुविहिया वच्चंति अणुत्तरं मोक्खं ।। ४ ।। सामायिकात्र प्रथम: छेदोपस्थापनं भवेद् द्वितीयम् । परिहारविशुद्धिकं सूक्ष्म तथा सम्परायञ्च ।। ३ ।। ततश्च यथाख्यातं ख्यातं सर्वस्मिन् जीवलोके । यच्चरित्वा सुविहिता व्रजन्ति अनुत्तरं मोक्षम् ।। ४ ।।
प्रथम सामायिक, द्वितीय छेदोपस्थापन, तृतीय परिहारविशुद्धि, चतुर्थ सूक्ष्मसम्पराय और पंचम यथाख्यात - ये पाँच प्रकार के चारित्र हैं। यथाख्यातचारित्र समस्त जीवलोक में प्रसिद्ध ही है, जिसका आचरण करके साधु परम पद मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
चारित्र के सामायिकादि पाँच भेदों का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है -
१. सामायिक - सामायिक शब्द का प्रकृति-प्रत्यय इस प्रकार होगा - सम + आ + Vइ + घञ् (अ) + इक। यहाँ सम का अर्थ है --- राग-द्वेषादि से रहित समताभाव। आ पूर्वक । इ धातु का अर्थ होता है आना, जिसमें भाववाचक घञ् प्रत्यय लगाने पर आय बनता है। पुनः तद्धित इक प्रत्यय लगाने पर (सम + आय + इक) सामायिक शब्द बनता है। सामायिक सभी सावध योगों से विरतिरूप है। सामायिक के इत्वर अल्पकालिक और यावत्कथित (जीवनपर्यन्त) - ये दो भेद हैं। इत्वर-सामायिक भरत और ऐरावत क्षेत्र में प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के तीर्थ में जिसे महाव्रत नहीं दिये गये हैं - ऐसे नवदीक्षित साधु को होती है। यावत्कथित सामायिक भरत-ऐरावत क्षेत्र में चौबीस में से बीच के बाईस तीर्थङ्करों और महाविदेह में सभी तीर्थङ्करों के तीर्थ में रहने वाले साधुओं को होती है, क्योंकि उनको दूसरा छेदोपस्थापन चारित्र नहीं होता है।
२. छेदोपस्थापन - जिसमें पूर्वपर्याय का छेद करके महाव्रतों का उपस्थान - आरोपण किया जाता है, उसे छेदोपस्थापन चारित्र करते हैं। यह सातिचार और निरतिचार के भेद से दो प्रकार का होता है। इत्वर सामायिक वाले नवदीक्षित साधु को छेदोपस्थापन देना अथवा एक तीर्थङ्कर के तीर्थ से दूसरे तीर्थङ्कर के तीर्थ में जाने वाले को छेदोपस्थापन चारित्र देना निरतिचार चारित्र है। मूलगुणों का घात करने वाले को फिर से महाव्रतों का आरोपण करना सातिचार छेदोपस्थापन चारित्र है।
३. परिहारविशुद्धि - तपविशेष को परिहार कहा जाता है। जिसमें परिहार तप से विशुद्धि की गई हो वह परिहारविशुद्धि चारित्र है। इसके दो भेद
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