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साधुधर्मविधि पञ्चाशक श्रावकधर्म के प्रतिपादन के पश्चात् अब साधुधर्म का विवेचन करने हेतु मंगलाचरण करते हैं -
मङ्गलाचरण नमिऊण वद्धमाणं मोक्खफलं परममंगलं सम्मं । वोच्छामि साहुधम्म समासओ भावसारं तु ॥ १ ॥ नत्वा वर्द्धमानं मोक्षफलं परममङ्गलं सम्यक् । वक्ष्यामि साधुधर्म समासतो भावसारं तु ॥ १ ॥
मोक्षफल के हेतुभूत परमकल्याणकारी वर्धमान स्वामी को नमस्कार करके मैं भावप्रधान साधुधर्म को संक्षेप में कहूँगा ।। १ ।।
विशेष : साधुधर्म में भाव की तथा श्रावकधर्म में द्रव्य की प्रधानता होती है।
साधु का स्वरूप चारित्तजुओ साहू तं दुविहं देससव्वभेएण । देसचरित्ते ण तओ इयरम्मि उ पंचहा तं च ।। २ ॥ चारित्रयुतः साधुः तद् द्विविधं देशसर्वभेदेन । देशचारित्रे न तक इतरस्मिंस्तु पञ्चधा तच्च ॥ २ ॥
जो चारित्रयुक्त हो वह साधु है। देशचारित्र और सर्वचारित्र के भेद से चारित्र दो प्रकार होता है। जो देशचारित्र से युक्त है वह साधु नहीं गृहस्थ है। साधु सर्वविरति रूप चारित्रवाला होता है। सर्वविरति रूप चारित्र पाँच प्रकार का है ॥ २ ॥
चारित्र के पाँच प्रकार सामाइयत्थ पढमो छेओवट्ठावणं भवे बीयं । परिहारविसुद्धीयं सुहुमं तह संपरायं च ॥ ३ ॥
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