SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशम ] उपासकप्रतिमाविधि पञ्चाशक १७९ भावार्थ : गीतार्थ को अपरिचित दीक्षार्थी से पूछना चाहिए कि वह कौन है ? कहाँ से आया है ? दीक्षा क्यों लेना चाहता है ? (पृच्छा)। यदि वह उचित उत्तर देता है तो उसे प्रव्रज्या का स्वरूप समझाना चाहिए (धर्म-कथन)। प्रव्रज्या का स्वरूप कहने के बाद वह योग्य है कि नहीं? इसका परीक्षण छह महीना या यथोचित समय तक करना चाहिए (परीक्षा)। इस प्रकार पृच्छा, कथन और परीक्षण से जो विशुद्ध लगे उसे दीक्षा देनी चाहिए, ऐसी जिनेन्द्रदेव की आज्ञा है ।। ४६ ।। आगमोपयोग से परिशुद्ध भाव वाले गुरु के द्वारा प्रव्रज्या काल में यदि दीक्षार्थी अयोग्य सिद्ध होता है तो प्रव्रज्या की शेष क्रियाओं (मुण्डन, छेदोपस्थापनीय चारित्र प्रदान आदि) का निषेध किया गया है ।। ४७ ।। भावार्थ : कल्पभाष्य में प्रव्रज्यासूत्र का अभिप्राय निम्नवत् है - १. सम्भवतः अनुपयोग आदि से अयोग्य को दीक्षा दे दी हो और बाद में पता चले कि वह अयोग्य है तो उसका मुण्डन नहीं करना चाहिए। फिर भी आचार्य यदि लोभ आदि से मुण्डन करते हैं तो आज्ञाभंग आदि दोष लगते हैं । २. यदि मुण्डन कर दिया हो तो प्रतिलेखना आदि साध्वाचार नहीं सिखाना चाहिए, क्योंकि सिखाने पर दोष लगता है । ३. यदि सिखा दिया है तो बड़ी दीक्षा नहीं देनी चाहिए, नहीं तो दोष लगता है। ४. यदि बड़ी दीक्षा (छेदोपस्थापन) दे दी हो तो उसके साथ मण्डल में बैठकर भोजन नहीं करना चाहिए । ५. यदि मण्डल में भोजन करने के बाद पता चले कि वह अयोग्य है तो उसको अपने पास नहीं रखना चाहिए। इस प्रकार आगम में 'मुण्डापयितुम्' इत्यादि जो कहा है उससे यह सिद्ध हुआ कि पृच्छादि से विशुद्ध जीव को ही दीक्षा देनी चाहिए। प्राय: जिसकी दीक्षा का परिणाम अच्छा हुआ हो उसी को दीक्षा दी जाती है ।। ४८ ।। उस काल में प्रतिमाधारी को दीक्षा देना अधिक संगत है. जुत्तो पुण एस कमो ओहेणं संपयं विसेसेणं । जम्हा असुहो कालो दुरणुचरो संजमो एत्थ ।। ४९ ।। युक्तः पुनरेषः क्रम ओघेन साम्प्रतं विशेषेण । यस्मादशुभः कालो दुरनुचरः संयमोऽत्र ।। ४९ ।। यद्यपि प्रतिमापालन के बिना भी दीक्षा हो सकती है, फिर भी सामान्यतया पहले प्रतिमा का सेवन हो फिर दीक्षा दी जाये – यही योग्य है। उसमें भी वर्तमान काल में और अधिक योग्य है, क्योंकि अभी समय अशुभ है और संयम पालन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy