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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ दशम
विशेष : यहाँ ‘समण' शब्द की इस प्रकार व्युत्पत्ति करने का आशय यह है कि वस्तुत: चारित्र के धनी शुद्ध अध्यवसाय वाले को ही समणत्व की प्राप्ति होती है - ऐसा जानना चाहिए ।। ४४ ।।
प्रतिमा का पालन किये बिना भी दीक्षायोग्य बना जा सकता है ता कम्मखओवसमा जो एयपगार मंतरेणावि । जायति जहोइयगुणो तस्सवि एसा तहा णेया ।। ४५ ।। एत्तो च्चिय पुच्छादिसु हंदि विसुद्धस्स सति पयत्तेणं । दायव्वा गीतेणं भणियमिणं सव्वदंसीहिं ।। ४६ ।। तह तम्मि तम्मि जोए सुत्तुवओगपरिसुद्धभावेण । दरदिण्णाएऽवि जओ पडिसेहो वण्णिओ एत्थ ।। ४७ ।। पव्वाविओ सियत्ति य मुंडावेउमिच्चाइ जं भणियं । सव्वं च इमं सम्मं तप्परिणामे हवति' पायं ।। ४८ ।। तस्मात् कर्मक्षयोपशमाद्य एतत्प्रकारमन्तेरणापि । जायते यथोदितगुणः तस्यापि एषा तथा ज्ञेया ।। ४५ ।। अत एव पृच्छादिषु हंदि विशुद्धस्य सकृत्प्रयत्नेन । दातव्या गीतेन भणितमिदं सर्वदर्शिभिः ।। ४६ ।। तथा तस्मिंस्तस्मिन् योगे सूत्रोपयोगपरिशुद्धभावेन । दरदत्तायामपि यतः . प्रतिषेधो वर्णितोऽत्र ।। ४७ ।। प्रव्राजितः स्यादिति च मुण्डापयितुमित्यादि यद्भणितम् । सर्वञ्चेदं सम्यक् तत्परिणामे भवति प्रायः ॥ ४८ ।।
जैसा कि पहले कहा गया है कि संसार से भयभीत (उदासीन) होने के कारण प्रशस्त अध्यवसाय वाले जीव को दीक्षा दी जाती है, उसी प्रकार जो जीव कम आयु के कारण प्रतिमा का सेवन किये बिना भी ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षयोपशम से प्रव्रज्या के योग्य गुणों वाला बन जाता है, उसको भी प्रतिमा का सेवन करने वाले की तरह दीक्षा दी जाती है। अर्थात् प्रतिमा का पालन किये बिना भी प्रव्रज्या के योग्य होने पर दीक्षा दी जा सकती है ।। ४५ ॥
इसीलिए गीतार्थ (सूत्रविद) को हमेशा प्रयत्नपूर्वक पृच्छादि में विशुद्ध जीव को दीक्षा देनी चाहिए - ऐसा केवलियों ने कहा है। १. 'एयगार' इति पाठान्तरम् । २. 'हवइ' इति भवनीयम्।
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