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दशम]
उपासकप्रतिमाविधि पञ्चाशक
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तस्याञ्च अविकलायां बाह्या चेष्टा यथोदिता प्रायः । भवति केवलं विशेषा क्वचिद् लक्ष्यते न तथा ।। ४२ ।।
योग्यता परीक्षणपूर्वक ली हुई दीक्षा को परिपूर्ण दीक्षा कहा जाता है। परिपूर्ण दीक्षा में प्रतिलेखना आदि सामाचारी की अनुपालनरूप चेष्टा आगमों के अनुसार होती है।
पुष्ट कारणों से अपवाद स्वीकार करने वाले पुरुष में आगमानुसारी क्रिया सामान्यतया होती है, किन्तु स्थूलदृष्टिवाले जीवों को वह (अपवाद अवस्था वाली क्रिया) सामान्य अवस्था वाली क्रिया की तरह स्पष्ट दिखलायी नहीं देती है ॥ ४२ ॥
परिपूर्ण दीक्षा में आगमानुसार क्रिया होने का कारण भवणिव्वेयाउ जतो मोक्खे रागाउ णाणपुव्वाओ। सुद्धासयस्स एसा आहेणवि वणिया समए ।। ४३ ।। भवनिर्वेदाद् यतः मोक्षे रागाद् ज्ञानपूर्वात् । शुद्धाशयस्य एषा ओघेनापि वर्णिता समये ।। ४३ ।।
सम्यग्ज्ञान होने पर जिन कारणों से संसार से वैराग्य होता है, उन्हीं कारणों से मोक्ष के प्रति राग होता है। अतः शुद्धाशय वाले श्रावक के लिए इस पूर्ण दीक्षा का सामान्य स्वरूप आगम में वर्णित है ।। ४३ ।।
शुद्ध परिणाम वाले को चारित्र की प्राप्ति में आगम प्रमाण तो समणो जइ सुमणो भावेण य जइ ण होइ पावमणो । सयणे य जणे य समो समो य माणावमाणेसु ॥ ४४ ॥ ततः समणो यदि सुमना भावेन च यदि न भवति पापमनाः । स्वजने च जने च समः समश्च मानापमानयोः ।। ४४ ।।
अब प्राकृत भाषागत 'समण' शब्द की व्युत्पत्ति करते हैं - समण शब्द में मण पद का अर्थ मन है अर्थात् जो मनवाला है वह समण है। यहाँ सामान्य मन विवक्षित नहीं है, क्योंकि सभी पञ्चेन्द्रिय जीव मनवाले होते हैं, इसलिए सद्गुण सम्पन्न और निर्दोष मनवाले के अर्थ में सुमण विवक्षित है, जो धर्मध्यानादि गुणों से युक्त मनवाला हो और प्राणातिपात आदि पापों से युक्त मन वाला न हो वह ‘समण' है।
जो स्वजन और परजन में समान भाव वाला हो तथा मान-अपमान में समभावपूर्वक बर्ताव करे, वह 'समण' है।
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