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पञ्चाशकप्रकरणम्
[दशम
न करना आदि आठवीं प्रतिमा। स्वयं आरम्भ नहीं करना नौवीं प्रतिमा। दूसरों से भी आरम्भ न करवाना दसवीं प्रतिमा तथा अपने लिए बनाये गये भोजन का त्याग और श्रमणभूत प्रतिमा में कहे अनुसार साधु आचार का पालन ग्यारहवीं प्रतिमा है। इस प्रकार श्रावकप्रतिमाओं का वर्णन पूरा हुआ।
प्रतिमा पूर्ण होने के बाद क्या करें? भावेऊणऽत्ताणं उवेइ पव्वज्जमेव सो पच्छा । अहवा गिहत्थभावं उचियत्तं अप्पणो णाउं ।। ३९ ।। भावयित्वाऽऽमानमुपैति प्रव्रज्यामेव सः पश्चात् । अथवा गृहस्थभावमुचितत्त्वमात्मनो ज्ञात्वा ।। ३९ ।।
प्रतिमा के आचरण से आत्मा को भावित करके अपनी योग्यता को जानकर यदि साधुता के योग्य है तो दीक्षा ले और यदि साधु बनने के योग्य न लगे तो गृहस्थ ही बना रहे ।। ३९ ॥
आत्मा को भावित करके दीक्षा लेने का कारण गहणं पव्वज्जाए जओ अजोगाण णियमतोऽणत्यो । तो तुलिऊणऽप्पाणं धीरा एवं पवज्जति ॥ ४० ॥ तुलणा इमेण विहिणा एतीए हंदि नियमतो णेया । णो देसविरइकंडयपत्तीएँ विणा जमेसत्ति ।। ४१ ।। ग्रहणं प्रव्रज्याया यत अयोग्यानां नियमतोऽनर्थः । ततः तुलयित्वाऽऽत्मानं धीरा एतां प्रव्रजन्ति ॥ ४० ॥ तुलना अनेन विधिना एतस्या हंदि नियमतो ज्ञेया । नो देशविरतिकण्डकप्राप्त्या विना यदेषेति ।। ४१ ।।
अयोग्य व्यक्तियों के द्वारा दीक्षा को स्वीकार करना नियमत: अनर्थकारी होता है, इसलिए बुद्धिमान् पुरुष अपनी योग्यता की समीक्षा करने के उपरान्त ही प्रव्रजित होते हैं ।। ४० ॥
प्रव्रज्या की योग्यता का परीक्षण प्रतिमागत आचरण से ही होता है, क्योंकि देशविरति स्वीकार करने की मनोवृत्ति या अध्यवसाय के बिना अर्थात् भावपूर्वक देशविरति स्वीकार किये बिना प्रव्रज्या नहीं होती है ।। ४१ ।।
योग्यता परीक्षण के बाद दीक्षित होने का लाभ तीए य अविगलाए बज्झा चेट्ठा जहोदिया पायं । होति णवरं विसेसा कत्थति लक्खिज्जए ण तहा ॥ ४२ ॥
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