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________________ दशम ] उपासकप्रतिमाविधि पञ्चाशक पूर्वायुक्तं कल्पते पश्चादायुक्तं तु न खलु एतस्य । ओदनभिलिङ्गसूपादिः सर्वमाहारजातं ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक उस्तरा से या हस्तलोंच से मुंडित होकर साधु रजोहरण और पात्रादि लेकर श्रमण के समान मन से ही नहीं काया से भी चारित्रधर्म का पालन करते हुए विहार करता है ।। ३५ ।। के उपकरण - ममत्वभाव से युक्त होने पर वह अपने ज्ञाति ( सम्बन्धी ) - जनों से मिलने जाता है, किन्तु वहाँ पर भी साधु की ही तरह प्रासुक आहार ग्रहण करता है। भाव यह है कि ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक का स्वजनों के प्रति प्रेम का सर्वथा अभाव नहीं होता है, इसलिए यदि वह उनसे मिलने जाना चाहे तो जा सकता है, किन्तु उनके द्वारा दिया गया अनेषणीय भोजन नहीं करता है ।। ३६ ।। तु ॥ ३७ ॥ ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक को स्वजन के घर पहुँचने से पहले तैयार किये गये भोजन में भात, मसूर की दाल आदि लेना चाहिए। उसके पहुँचने के बाद तैयार किया गया भोजन उसके लिए कल्प्य नहीं है, क्योंकि गृहस्थ उसके लिए भात आदि अधिक बनाने का संकल्प करेगा ऐसी सम्भावना रहती है ॥ ३७ ॥ — ग्यारहवीं प्रतिमा का उत्कृष्ट और सभी प्रतिमाओं का जघन्य काल एवं उक्कोसेणं एक्कारस मास जाव विहरेइ । गाहादियरेणं एयं सव्वत्थ - एवमुत्कृष्टेन एकादश मासान् यावद् विहरति । एकाहादीतरेण एतत्सर्वत्र Jain Education International पाएणं ।। ३८ ।। १७५ प्रायेण ।। ३८ ।। उपर्युक्त प्रकार से साधु के आचार का पालन करते हुए उत्कृष्टता से ग्यारह महीने तक मासकल्पादि पूर्वक विहार करे। जघन्य से इस प्रतिमा का काल एक अहोरात्र, दो अहोरात्र और तीन अहोरात्र है। इस प्रकार जितना विहार कर सके करे। सभी प्रतिमाओं का जघन्यकाल प्रायः इसी प्रकार है। 'प्रायः' ऐसा कहकर यह बतलाया गया है कि अन्तर्मुहूर्त आदि भी जघन्यकाल हो सकते हैं। जघन्यकाल मृत्यु या प्रव्रजित होने पर होता है अन्यथा नहीं ॥ ३८ ॥ यहाँ अन्तिम सात प्रतिमाएँ आवश्यकचूर्णि में दूसरी तरह कही गयी हैं। वे इस प्रकार हैं रात्रिभोजन का त्याग पाँचवीं प्रतिमा, सचित्त आहार का त्याग छठीं प्रतिमा, दिन में अब्रह्म का सर्वथा त्याग और रात्रि में अब्रह्म का परिमाण करना सातवीं प्रतिमा। दिन और रात्रि में भी अब्रह्म का सर्वथा त्याग करना, स्नान For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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