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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ दशम
छठीं अब्रह्मवर्जन प्रतिमा का स्वरूप पुव्वोइयगुणजुत्तो विसेसओ विजियमोहणिज्जो य। वज्जइ अबंभमेगंतओ उ राइंपि थिरचित्तो ।। २० ॥ पूर्वोदितगुणयुक्तो विशेषतो विजितमोहनीयश्च । वर्जयति अब्रह्ममेकान्ततस्तु रात्रिमपि स्थिरचित्त: ।। २० ॥
पूर्वोक्त सम्यग्दर्शन, व्रत, सामायिक, पोषध और कायोत्सर्ग -- इन पाँच प्रतिमारूप गुणों से युक्त और पाँचवीं प्रतिमा द्वारा विशेष रूप से काम पर विजय पाने वाला श्रावक छठीं अब्रह्मवर्जन प्रतिमा में अविचलित चित्तवाला होकर रात्रि में भी काम-वासना का पूर्णतया त्याग करता है।
विशेष : पाँचवीं और छठी प्रतिमा में यही भेद है कि पाँचवीं प्रतिमा में रात्रि में मैथुन-सेवन का सर्वथा त्याग नहीं होता है, जबकि छठी में उसका सर्वथा त्याग होता है ।। २० ।।
चित्त की स्थिरता के उपाय सिंगारकहाविरओ इत्थी' समं रहम्मि णो ठाइ । । चयइ य अतिप्पसंगं तहा विहूसं च उक्कोसं ॥ २१ ॥ शृङ्गारकथाविरत: स्त्रिया समं रहसि न तिष्ठति ।। त्यजति चातिप्रसङ्गं तथा विभूषां च उत्कृष्टाम् ॥ २१ ।।
छठी प्रतिमा धारण करने वाले श्रावक को १. शृंगारिक कथाएँ नहीं करनी चाहिए, २. स्त्री के साथ एकान्त में नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि एकान्त स्थान चित्त की अस्थिरता का कारण है, ३. स्त्रियों से प्रकट में भी अतिपरिचय नहीं रखना चाहिए तथा शरीर के विशेष शृंगार का भी त्याग करना चाहिए ।। २१ ।।
छठी प्रतिमा का काल एवं जा छम्मासा एसोऽहिगतो इहरहा दिटुं । जावज्जीवंपि इमं वज्जइ एयम्मि लोगम्मि ॥ २२ ।। एवं यावत् षण्मासान् एषोऽधिकृत इतरथा दृष्टम् । यावज्जीवमपि इदं वर्जयति एतस्मिन् लोके ।। २२ ।।
अब्रह्मवर्जन रूप प्रतिमाधारी श्रावक श्रृंगारकथा आदि के त्यागपूर्वक उत्कृष्टता से छ: महीने तक अब्रह्म का त्याग करता है। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ श्रावक आजीवन अब्रह्म का त्याग करते हैं - ऐसा इस लोक में देखा गया है।
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