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दशम]
उपासकप्रतिमाविधि पञ्चाशक
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सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् उस समय कर्मों की जितनी स्थिति है, उसमें से दो से लेकर नव पल्योपम तक की स्थिति घटे तब अणुव्रतों की प्राप्ति अवश्य होती है। अणुव्रत क्षायोपशमिक भावरूप होते हैं, इसलिए आत्मा के प्रशस्त परिणाम हैं ।। ९ ॥
व्रतप्रतिमा में गुणदोषों की स्थिति बंधादि असक्किरिया संतेसु इमेसु पहवइ ण पायं । अणुकंपधम्मसवणादिया उ पहवति विसेसेण ।। १० ।। बन्धादिरसत्क्रिया सत्सु एषु प्रभवति न प्रायः । अनुकम्पाधर्मश्रवणादिका तु प्रभवति विशेषेण ।। १० ।।
इन अणुव्रतों के होने पर व्रत के अतिचाररूप बन्ध, वध आदि अयोग्य क्रियाएँ प्राय: नहीं होती हैं तथा जीवदया, धर्मशास्त्रश्रवण आदि क्रियाएँ विशेषत: होती हैं। इस प्रकार निरतिचार पाँच अणुव्रतों के पालनरूप व्रतप्रतिमा है ।॥ १० ॥
सामायिक शब्द का अर्थ सावज्जजोगपरिवज्जणादिरूवं तु होइ विण्णेयं । सामाइयमित्तरियं गिहिणो परमं गुणट्ठाणं ।। ११ ।। सावधयोगपरिवर्जनादिरूपं तु भवति विज्ञेयम् । सामायिकमित्वरिकं गृहिणः परमं गुणस्थानम् ।। ११ ॥
सावद्ययोग के त्याग और निरवद्ययोग के सेवन को सामायिक कहा जाता है। यह एक मुहूर्त (दो घड़ी) आदि थोड़े समय के लिए होती है। सामायिक श्रावक का प्रधान गुणस्थान है। यहाँ गुणस्थान का तात्पर्य चौदह गुणस्थानों से नहीं, अपितु देशविरति की अलग-अलग कक्षाओं में से एक है ।। ११ ।।
सामायिक के प्रधान गुणस्थान होने का कारण सामाइयंमि उ कए समणो इव सावओ जतो भणितो । बहुसो विहाणमस्स य तम्हा एयं जहुत्तगुणं ।। १२ ।। सामायिके तु कृते श्रमण इव श्रावको यतो भणितः । बहुशः विधानमस्य च तस्मादेतद् यथोक्तगुणम् ।। १२ ।।
सामायिक करता हुआ श्रावक साधु की तरह मोक्षसुख के परमसाधनरूप समभाव का अनुभव करता है और वह साधु के समान होता है। इसलिए नियुक्तिकार ने अनेक बार सामायिक करने का विधान किया है ।। १२ ।।
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