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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ दशम
दर्शनप्रतिमा वाला जीव ज्ञानावरणीय कर्मों के उदय से श्रुतचारित्ररूप धर्म में कुछ अज्ञानी हो सकता है, किन्तु विपरीत अवधारणा वाला नहीं हो सकता है, क्योंकि वह कदाग्रहरहित होता है। वह दर्शनप्रतिमा वाला जीव आस्तिक्य, अनुकम्पा, निर्वेद, संवेग और प्रशम - इन पाँच गुणों से युक्त होता है तथा शुभानुबन्ध (अर्थात् प्रशस्त परिणाम और उसके फल का सातत्य) से युक्त और शंकादि अतिचारों से रहित होता है ।। ६ ॥
दर्शनप्रतिमा का अर्थ शरीर क्यों? बोंदी य एत्थ पडिमा विसिट्ठगुणजीवलोगओर भणिया । ताएरिसगुणजोगा सुहो उ सो खावणत्यत्ति ।। ७ ॥ . बोन्दिश्चात्र प्रतिमा विशिष्टगुणजीवलोकतो भणिता । तयेदृशगुणयोगात् शुभस्तु सः ख्यापनार्थमिति ।। ७ ।।
संसाराभिनन्दी (संसार में ही आनन्द मानने वाले) जीवों की अपेक्षा मार्गाभिमुखी (मोक्षमार्ग में संलग्न) जीव विशिष्ट गुणवाले हैं। विशिष्ट गुणवाले मार्गाभिमुखी आदि जीवों से दर्शनप्रतिमाधारी अधिक शुभ हैं, क्योंकि वे जिनाज्ञा को सत्य मानकर उन गुणों से युक्त होते हैं। ये गुण कायिकरूप होने से काया से व्यक्त होते हैं, इसीलिए प्रतिमा का अर्थ शरीर किया गया है ।। ७ ।।
दूसरी व्रतप्रतिमा का स्वरूप एवं वयमाईसुवि दट्ठव्वमिणंति णवरमेत्थ वया । घेप्पंतऽणुव्वया खलु थूलगपाणवहविरयादी ॥ ८ ॥ एवं व्रतादिष्वपि द्रष्टव्यमिदमिति केवलमत्र व्रतानि । गृह्यन्तेऽणुव्रतानि खलु स्थूलकप्राणवधविरत्यादीनि ।। ८ ।।
दर्शनप्रतिमा की ही तरह व्रत आदि दूसरी सभी प्रतिमाओं में भी प्रतिमा शब्द का अर्थ शरीर ही समझना चाहिए। दूसरी व्रतप्रतिमा में स्थूल-प्राणातिपातविरमण आदि पाँच अणुव्रत ही स्वीकृत किये जाते हैं ।। ८ ।। सम्यक्त्व की प्राप्ति के कितने समय बाद व्रतों की प्राप्ति होती है ?
सम्मत्तोवरि ते सेसकम्मुणो अवगए पुहुत्तम्मि । पलियाण होति णियमा सुहायपरिणामरूवा उ ।। ९ ।। सम्यक्त्वोपरि ते शेषकर्मणो अपगते पृथक्त्वे ।
पल्यानां भवन्ति नियमात् शुभात्मपरिणामरूपाणि तु ।। ९ ॥ १. 'जीवलोयओ' इति पाठान्तरम् ।
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