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दशम]
उपासकप्रतिमाविधि पञ्चाशक
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दर्शन-व्रत-सामायिक-पौषध-प्रतिमा-अब्रह्म - सचित्ते । आरम्भ-प्रेष्य-उद्दिष्टवर्जकः
श्रमणभूतश्च ।। ३ ।। दर्शन, व्रत, सामायिक, पौषध, नियम, अब्रह्मवर्जन, सचित्तवर्जन, आरम्भवर्जन, प्रेष्यवर्जन, उद्दिष्टवर्जन और श्रमणभूत – ये श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ हैं ।। ३ ।।
दर्शनप्रतिमा का स्वरूप दंसणपडिमा णेया सम्मत्तजुयस्स जा इहं बोंदी । कुग्गहकलंकरहिया मिच्छत्तखओवसमभावा ।। ४ ।। दर्शनप्रतिमा ज्ञेया सम्यक्त्वयुतस्य या इह बोन्दिः । कुग्रहकलंकरहिता मिथ्यात्वक्षयोपशमभावात् ।। ४ ।।
यहाँ सम्यक्त्व से युक्त जीव का शरीर दर्शनप्रतिमा है। दर्शनप्रतिमाधारी मिथ्यात्व के क्षयोपशम से युक्त होने के कारण कदाग्रह के कलंक से रहित होता
विशेष : सम्यग्दर्शन के पालनरूप दर्शनप्रतिमा होने पर भी यहाँ सम्यग्दृष्टि के शरीर को दर्शनप्रतिमा कहा गया है - इसका स्पष्टीकरण सातवीं गाथा में किया जायेगा ।। ४ ।।
मिच्छत्तं कुग्गहकारणंति खओवसममुवगए तम्मि । ण तओ कारणविगलत्तणेण सदि विसविगारो व्व ॥ ५ ॥ मिथ्यात्वं कुग्रहकारणमिति क्षयोपशममुपगते तस्मिन् । न तक: कारणविकलत्वेन सकृद् विषविकार इव ।। ५ ।।
मिथ्यात्व कदाग्रह का कारण होता है। मिथ्यात्व का क्षयोपशम हो जाने पर कारणहीनता के कारण कदाग्रह भी नहीं रहता है। जिस प्रकार शरीर में विष ही न हो तो उसका विकार भी नहीं होगा, क्योंकि विषविकार का कारण विष है। उसी प्रकार मिथ्यात्व रूप कारण के बिना कदाग्रह रूप कार्य भी नहीं होता
दर्शनप्रतिमाधारी जीव का स्वरूप होइ अणाभोगजुओ ण विवज्जयवं तु एस धम्मम्मि । अत्थिक्कादिगुणजुतो सुहाणुबंधी णिरतियारो ॥ ६ ॥ भवति अनाभोगयुतो न विपर्ययवान् तु एष धर्मे । आस्तिक्यादिगुणयुतः शुभानुबन्धी निरतिचारः ।। ६ ॥
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