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[ नवम
कल्याणक के दिनों में की गई जिनयात्रा का जो वर्णन ऊपर किया गया है, वह उत्तम है तथा शास्त्रोक्त दूसरे महोत्सव भी उत्तम हैं, इसलिए बुद्धिजीवी लोगों द्वारा इन महोत्सवों को सदा समृद्धिपूर्वक करना चाहिए ।। ४५ ।।
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पञ्चाशकप्रकरणम्
समृद्धिपूर्वक महोत्सव न करने से अथवा महोत्सव ही नहीं करने से उस महोत्सव का विधान करने वाले शास्त्र या महोत्सव करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की अवज्ञा होती है। क्योंकि यह साधारण सा नियम है कि शास्त्रोक्त वचन का पालन व महापुरुषों के कृत्यों का अनुसरण न करना, उनका अपमान करना है। इसलिए सम्मान का अभाव और अवज्ञा का भलीभाँति विचार कर लेना चाहिए, क्योंकि सभी अनुष्ठानों में गुणदोष की विचारणा मुख्य है ।। ४६ ।।
लोकरूदि से किये जाने वाले महोत्सवों का निषेध जेम्मि विज्जमाणे उचिए अणुजेटुपूयणमजुत्तं । लोगाहरणं च तहा पयडे भगवंतवयणम्मि ।। ४७ ।।
ज्येष्ठे विद्यमाने उचिते अनुज्येष्ठपूजनमयुक्तम् । लोकाहरणं च तथा प्रकटे भगवद्वचने ।। ४७ ।
जिस प्रकार पिता आदि बड़े लोग विद्यमान हों तो छोटे पुत्रादि को मुखिया के रूप में मान-सम्मान देना उपयुक्त नहीं है । उसी प्रकार जगत् के जीवों के सामने सर्वश्रेष्ठ जिनागम के विद्यमान होने पर लौकिक उदाहरणों को ग्रहण करना अयुक्त है। अर्थात् लोक में पिण्डदान, श्राद्ध आदि महोत्सव किये जाते हैं, इसलिए मुझे भी वैसे ही महोत्सव करने चाहिए यह ठीक नहीं है, क्योंकि वे अयुक्त हैं ।। ४७ ।।
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लोगो गुरुतरगो खलु एवं सति भगवतोऽवि इट्ठोत्ति । मिच्छत्तमो य एयं एसा आसायणा
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लोको गुरुतरकः खलु एवं सति भगवतोऽपि इष्ट इति । मिथ्यात्वञ्च एतदेषा आशातना
परमा ।। ४८ ॥
जिनागम के होते हुए लोकरूढ़ि से महोत्सव करने से लोक जिनागम से भी बड़ा प्रमाणभूत बन गया। इस प्रकार लोक को प्रमाण मानने में लोक भगवान् से भी बड़ा हो गया। लोक को भगवान् से बड़ा मानना मिथ्यात्व है (क्योंकि वास्तविकता यह है कि भगवान् लोक से बड़े हैं)। इससे सर्वज्ञदेव की महान् आशातना होती है। इसलिए सर्वज्ञवचन को ही प्रधान मानना चाहिए ।। ४८ ।।
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परमा ।। ४८ ॥
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