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नवम ]
यात्राविधि पञ्चाशक
कल्याणक दिवसों में यात्रा की महत्ता का कारण विसयप्पगरिसभावे किरियामेत्तंपि बहुफलं होइ । सक्किरियावि हु ण तहा इयरम्मि अवीयरागिव्व ।। ४३ ।। विषयप्रकर्षभावे क्रियामात्रमपि बहुफलं भवति । सत्क्रियाऽपि खलु न तथा इतरस्मिन् अवीतरागीव ।। ४३ ।।
क्रिया का विषय यदि उत्कृष्ट हो तो सामान्य क्रिया करने से भी बहुत लाभ होता है और यदि क्रिया का विषय उत्कृष्ट न हो तो विशिष्ट प्रकार की क्रिया से भी बहुत लाभ नहीं होता है । जैसे वीतरागी भगवान् उत्कृष्ट गुणों वाले होने के कारण उनकी पूजादि सामान्य क्रिया बहुत फलदायिनी होती है, जबकि जो वीतरागी नहीं हैं उनकी विशिष्ट पूजा करने से भी बहुत लाभ नहीं होता है। इन कल्याणकों के दिनों के अतिरिक्त दूसरे दिनों में जिनमहोत्सव करने से बहुत लाभ नहीं होता है || ४३ ॥
काव्वो ।। ४४ ।
कल्याणक के दिनों में महोत्सव सम्बन्धी उपदेश लद्धूण दुल्लहं ता मणुयत्तं तह य पवयणं जइणं । उत्तमणिदंसणेसुं बहुमाणो होइ लब्ध्वा दुर्लभं तस्मात् मनुजत्वं तथा च प्रवचनं जैनम् | उत्तमनिदर्शनेषु बहुमानो भवति कर्तव्यः || ४४ ॥
कल्याणक के दिनों में जिनमहोत्सव इन्द्रादि देवों ने भी किया है और यह बहुत फल देने वाला है, इसलिए दुर्लभ मनुष्ययोनि और जिनशासन पाकर सात्त्विक जीवों के दृष्टान्तों को जीवन में अपनाना चाहिए। अर्थात् कल्याणक के दिनों में जिनयात्रा अवश्य करनी चाहिए ।। ४४ ।।
सभी महोत्सवों से सम्बन्धित सर्वसाधारण उपदेश एसा उत्तमजत्ता उत्तमसुयवण्णिया सदि बुहेहिं । सेसा य उत्तमा खलु उत्तमरिद्धीऍ कायव्वा ।। ४५ ।। इयराऽतब्बहुमाणोऽवण्णा य इमीऍ णिउणबुद्धीए ।
एयं विचिंतियव्वं गुणदोसविहावणं एषा उत्तम यात्रा उत्तमश्रुतवर्णिता सकृद् शेषा च उत्तमा खलु उत्तमऋद्धया इतरथाऽतद्बहुमानोऽवज्ञा च अस्यां निपुणबुद्धया । एतद्विचिन्तितव्यं गुणदोषविभावनं
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परमं ॥। ४६ ।।
बुधैः ।
कर्तव्या ।। ४५ ।
परमम् ।। ४६ ।
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