________________
पञ्चाशकप्रकरणम्
[ नवम
विशुद्ध मार्गानुसारीभाव से सभी वांछित अर्थों की सिद्धि अवश्य होती है, क्योंकि राग और द्वेष को जीतने वाले अर्हतों ने विशुद्ध मार्गानुसारी भाव को सकल वांछित अर्थों की सिद्धि का सफल हेतु कहा है ।। ३९ ।।
१६०
उपर्युक्त हेतु का कारण
मग्गाणुसारिणो खलु तत्ताभिणिवेसओ सुभा चेव । होइ समत्ता चेट्ठा असुभावि य णिरणुबंधति ॥ ४० ॥
मार्गानुसारिणः खलु तत्त्वाभिनिवेशतः शुभा एव । भवति समस्ता चेष्टा अशुभाऽपि च निरनुबन्धेति ।। ४० ।।
मार्गानुसारी भाव वाले के आत्म-तत्त्व या सम्यक्त्व के अभिमुख होने से उसकी सभी क्रियाएँ शुभ ही होती हैं और यदि अशुभ होती हैं तो निरनुबन्ध अर्थात् फिर से बन्धन नहीं करने वाली होती हैं ॥ ४० ॥
निरनुबन्ध क्रिया का कारण
सो कम्मपारतंता वट्टइ तीए ण भावओ जम्हा ।
इय जत्ता इय बीयं एवंभूयस्स
·
सः कर्मपारतन्त्र्याद् वर्तते तस्यां न भावतो इति यात्रा इति बीजं एवम्भूतस्य
भावस्स ।। ४१ ॥
यस्मात् ।
भावस्य ।। ४१ ॥
मार्गानुसारी तत्त्वाभिमुखी (तत्त्व के आग्रह वाले ) जीव की अशुभक्रिया में पूर्वोपार्जितकर्म की परतन्त्रता ही कारण है, भाव से वह अशुभ क्रिया नहीं करता है। इसलिए उसकी अशुभ क्रिया निरनुबन्ध है। ऐसे मार्गानुसारीभाव का मूल जिनकल्याणक सम्बन्धी जिनयात्रा महोत्सव है ॥ ४१ ॥
Jain Education International
कल्याणक के दिनों में रथादि का विधान
ता रहणिक्खमणादिवि एते उ दिणे पडुच्च कायव्वं । जं एसो च्चिय विसओ पहाणमो तीऍ तस्माद् रथनिष्क्रमणाद्यपि एतानि तु दिनानि प्रतीत्य यदेष एव विषय: प्रधान: तस्या:
किरियाए ।। ४२ ।।
कल्याणक दिवसों में जिनमहोत्सव करने से तीर्थङ्कर का अति सम्मान होता है। इसलिए इन दिनों में जिनबिम्ब से युक्त रथ, शिबिका आदि भी शहर में घुमानी चाहिए। ये सब कल्याणक के दिनों में ही करना चाहिए, क्योंकि इन सब कार्यों के लिए कल्याणक के दिन ही उत्तम हैं ॥ ४२ ॥
For Private & Personal Use Only
कर्तव्यम् ।
क्रियायाः ।। ४२ ॥
www.jainelibrary.org