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नवम]
यात्राविधि पञ्चाशक
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दानपूर्वक जीवहिंसा निवारण का प्रसंग यहाँ पूरा हुआ। भगवान् जिनेन्द्रदेव के कल्याणक के दिनों में यथावसर तप, शरीरभूषा आदि भी करनी चाहिए ॥ २९ ।।
कल्याणकों का स्वरूप और फल पंचमहाकल्लाणा सव्वेसिं जिणाण होति णियमेण । भुवणच्छेरयभूया कल्लाणफला य जीवाणं ।। ३० ॥ पञ्चमहाकल्याणानि सर्वेषां जिनानां भवन्ति नियमेन । भुवनाश्चर्यभूतानि कल्याणफलानि च जीवानाम् ॥ ३० ।।
सभी तीर्थङ्करों के पाँच महान् कल्याणक अवश्य होते हैं और तीनों लोकों के सभी जीवों के लिए ये कल्याणक आश्चर्यजनक कल्याणकारी फल देने वाले होते हैं, अर्थात् इन कल्याणकों की आराधना से जीवों को मोक्षफल मिलता है ।। ३० ।।
गब्भे जम्मे य तहा णिक्खमणे चेव णाणणेव्वाणे । भुवणगुरूण जिणाणं कल्लाणा होति णायव्वा ।। ३१ ।। गर्भे जन्मे च तथा निष्क्रमणे चैव ज्ञाननिर्वाणे । भुवनगुरूणां जिनानां कल्याणानि भवन्ति ज्ञातव्यानि ।। ३१ ।।
तीनों लोकों के नाथ तीर्थङ्करों के गर्भ में आगमन, जन्म, निष्क्रमण, केवलज्ञान की प्राप्ति और मोक्षप्राप्ति - इन पाँच प्रसंगों पर सभी जीवों का कल्याण होता है, इसलिए इन प्रसंगों को कल्याणक कहा जाता है ।। ३१ ।।
देव भी कल्याणकों की रचना करते हैं तेसु य दिणेसु धन्ना देविंदाई करिति भत्तिणया । जिणजत्तादि विहाणा कल्लाणं अप्पणो चेव ॥ ३२ ।। तेषु च दिनेषु धन्या देवेन्द्रादयः कुर्वन्ति भक्तिनताः । जिनयात्रादि विधानात् कल्याणं आत्मन एव ।। ३२ ।।
उन्हीं गर्भादि कल्याणकों के समय भगवद्भक्ति के कारण विनीत पुण्यशाली देवेन्द्रादि भी जिनयात्रा, पूजा, स्नात्र आदि अनुष्ठानों के माध्यम से ही स्व-पर कल्याण करते हैं । ३२ ।।
मनुष्यों को भी कल्याणकों की आराधना करनी चाहिए इय ते दिणा पसत्था ता सेसेहिंपि तेसु कायव्वं । जिणजत्तादि सहरिसं ते य इमे वद्धमाणस्स ।। ३३ ।।
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