________________
१५६
पञ्चाशकप्रकरणम्
[नवम
महापुरुषों/पूर्वजों का अन्त:करण से सम्मान करना चाहिए ।। २५ ।।
ते धण्णा सप्पुरिसा जे एयं एवमेव णिस्सेसं । पुव्विं करिंसु किच्चं जिणजत्ताए विहाणेणं ॥ २६ ॥ ते धन्याः सत्पुरुषाः य एतद् एवमेव निःशेषम् । पूर्वमकार्षुः कृत्यं जिनयात्रायां विधानेन ।। २६ ।।
वे पूर्वज (महापुरुष) धन्य हैं, प्रशंसनीय हैं, जिन्होंने जिनयात्रा में राजा आदि को उपदेश देकर तथा हिंसकों को दान देकर हिंसा बन्द करायी थी ।। २६ ।।
अम्हे उ तह अधण्णा धण्णा उण एत्तिएण जं तेसिं । बहुमण्णामो चरियं सुहावहं धम्मपुरिसाणं ।। २७ ॥ वयं तु तथा अधन्याः धन्याः पुनरि यता यत्तेषाम् । बहुमन्यामहे चरितं सुखावहं धर्मपुरुषाणाम् ।। २७ ।।
हम तो अधन्य हैं, क्योंकि हम जिनयात्रादि को शास्त्रोक्त विधि से करने में असमर्थ हैं। फिर भी इतने धन्य तो हैं ही कि हम उन धर्मप्रधान महापुरुषों के सुखद आचरण का सम्मान करते हैं ।। २७ ।।
पूर्वमहापुरुषों के सम्मान का फल इय बहुमाणा तेसिं गुणाणमणुमोयणा णिओगेणं । तत्तो तत्तुल्लं चिय होइ फलं आसयविसेसा ॥ २८ ॥ इति बहुमानात्तेषां गुणानामनुमोदना नियोगेन । ततः तत्तुल्यमेव भवति फलं आशयविशेषात् ।। २८ ।।
इस प्रकार उन महापुरुषों का सम्मान करने से उनके गुणों की अनुमोदना अवश्य होती है और हिंसा निवारणरूप विशेष भाव होने से उन पूर्व पुरुषों के समान कर्मक्षय आदि का फल मिलता है। क्योंकि शुभाशुभ कर्मबन्ध का मुख्य कारण उसका अध्यवसाय वैसा ही है। अत: शुभ भावानुरूप फल की प्राप्ति अवश्य होती है ।। २८ ॥
कल्याणकों की आराधना का विधान कयमेत्थ पसंगेण तवोवहाणादियावि' णियसमए । अणुरूवं कायव्वा जिणाण कल्लाणदियहेसु ।। २९ ।। कृतमत्रप्रसङ्गेन तप-उपधानादिका अपि निजसमये ।
अनुरूपं कर्तव्याः जिनानां कल्याणदिवसेषु ॥ २९ ।। १. 'तवोवहाणादिणोऽवि' इति पाठान्तरम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org