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नवम ]
यात्राविधि पञ्चाशक
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तेषामपि घातकानां दातव्यं सामपूर्वकं दानम्। तावद्दिनानां उचितं कर्तव्या देशना च शुभा ।। २२ ।।
जीवहिंसा से आजीविका चलाने वाले मछुआरों आदि को भी जितने दिन महोत्सव हो उतने दिन उनको अन्नादि का दान देना चाहिए तथा उन्हें अहिंसा का शुभ उपदेश देना चाहिए ।। २२ ।।
हिंसकों को दान देने से लाभ तित्थस्स वण्णवाओ एवं लोगम्मि बोहिलाभो य । केसिंचि होइ परमो अण्णेसिं बीयलाभोत्ति ।। २३ ।। तीर्थस्य वर्णवाद एवं लोके बोधिलाभश्च । केषाञ्चिद् भवति परम अन्येषां बीजलाभ इति ।। २३ ।।
हिंसकों को दान देकर हिंसा बन्द करवाने से लोक में जिनशासन की प्रशंसा होती है और इससे कितने लघुकर्मी जीवों को सम्यग्दर्शन का उत्तम लाभ होता है तथा अन्य कितने जीवों को सम्यग्दर्शन के बीज की प्राप्ति होती है ।। २३ ।।
जा चिय गुणपडिवत्ती सव्वण्णुमयम्मि होइ पडिसुद्धा । स च्चिय जायति बीयं बोहीए तेणणाएणं ।। २४ ।। या एव गुणप्रतिपत्तिः सर्वज्ञमते भवति परिशुद्धा । सा एव जायते बीजं बोधेः स्तेनज्ञातेन ।। २४ ।।
(क्योंकि) जिनशासन के सम्बन्ध में यदि थोड़ी भी गुणप्रतिपत्ति हो तो वह ही सम्यग्दर्शन का कारण बनता है। इस विषय में चोर का उदाहरण है।
विशेष : यह उदाहरण सप्तम पञ्चाशक की आठवीं गाथा में कहा गया है ॥ २४ ॥ श्रावक भी यदि राजा से मिलने में समर्थ न हों तो क्या करना चाहिए
इय सामत्थाभावे दोहिवि वग्गेहिं पुव्वपुरिसाणं । इय सामत्थजुयाणं बहुमाणो होति कायव्वो ॥ २५ ॥ इति सामर्थ्याभावे द्वाभ्यामपि वर्गाभ्यां पूर्वपुरुषाणाम् । इति सामर्थ्ययुतानां बहुमानं भवति कर्तव्यः ।। २५ ।।
· आचार्य और श्रावक - दोनों यदि राजा से हिंसा बन्द करवाने में समर्थ न हो सकें तो उन दोनों को राजा से मिलकर हिंसा बन्द करवाने वाले पूर्व
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