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पञ्चाशकप्रकरणम्
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[नवम
सभी सम्पत्तियों का कारण धर्म है और धर्म ही संसाररूपी समुद्र को पार कराने वाला जहाज है ।। १८ ।।
जायइ य सुहो एसो उचियत्थापायणेण सव्वस्स । जत्ताएँ वीयरागाण विसयसारत्तओ पवरो ।। १९ ।। जायते च शुभ एष उचितार्थापादनेन सर्वस्य । यात्रया वीतरागाणां विषयसारत्वतः प्रवरः ।। १९ ।।
वीतरागी भगवान् जिनेन्द्रदेव की यात्रा के द्वारा उचित कार्य करने से सबका शुभ होता है और उनके गुणों का अतिशय प्रकट होता है। यही श्रेष्ठ धर्म है ॥ १९ ॥
एतीएँ सव्वसत्ता सुहिया खुअहेसि तंमि कालंमि । एण्हिपि आमघाएण कुणसु तं चेव एतेसिं ।। २० ।। एतया सर्वसत्त्वाः सुखिता एव अभूवन् तस्मिन् काले । इदानीमपि अमाघातेन कुरुष्व तदेव एतेषाम् ।। २० ।।
जिनेन्द्रदेव के जन्मादि के समय सभी जीव सुखी थे, इसलिए हे महाराज ! इस समय भी इस जिनयात्रा में अमारि-प्रवर्तन (हिंसा-निवारण) के माध्यम से सभी जीवों को अभयदान देकर सुखी करें ।। २० ।।
आचार्य की अनुपस्थिति में करणीय कार्य तम्मि असंते राया दट्ठव्वो सावगेहिवि कमेणं । कारेयव्वो य तहा दाणेणवि आमघाउत्ति ॥ २१ ॥ तस्मिन् असति राजा द्रष्टव्यः श्रावकैरपि क्रमेण । कारयितव्यश्च तथा दानेनापि अमाघात इति ।। २१ ।।
आचार्य न हों तो श्रावकों को भी प्रचलित रीतिरिवाज के अनुसार राजा से मिलना चाहिए और उसे समझाकर जीवहिंसा बन्द करवानी चाहिए। यदि समझाने से राजा न माने तो उसे धन देकर भी यह कार्य करवाना चाहिए ।। २१ ।।
हिंसाजनक आजीविका बन्द करने वाले को दान देने की विधि तेसिंपि घायगाणं दायव्वं सामपुव्वगं दाणं ।
तत्तियदिणाण उचियं कायव्वा देसणा य सुहा ।। २२ ॥ १. अत्र ‘खु' शब्दोऽवधारणार्थे प्रयुक्तः ।
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