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नवमा
यात्राविधि पञ्चाशक
१५३
दृष्टः प्रवचनगुरुणा राजा अनुशासितश्च विधिना तु । तन्नास्ति यन्न वितरति कियदिह अमाघात इति ।। १५ ॥
मुख्य आचार्य राजा से मिलकर विधिपूर्वक उपदेश दें तो उपदेश से सन्तुष्ट राजा ऐसी कोई वस्तु नहीं जो न दे दे। फिर तो जिनयात्रा के अवसर पर जीवहिंसा निवारण कौन-सा बड़ा काम है? अर्थात् जीवहिंसा का निवारण तो राजा कर ही सकता है ।। १५ ।।
राजा को उपदेश देने की विधि एत्थमणुसासणविही भणिओ सामण्णगुणपसंसाए । गंभीराहरणेहिं उत्तीहि य भावसाराहिं ।। १६ ।। अत्रानुशासनविधिर्भणित: सामान्यगुणप्रशंसया । गम्भीराहरणैरुक्तिभिश्च
भावसाराभिः ।। १६ ।। साधु को राजा के पास जाकर जैनशासन से अविरुद्ध विनय, दाक्षिण्य और सज्जनता आदि गुणों की प्रशंसा करनी चाहिए। महापुरुषों के उत्तम उदाहरण देने चाहिए और भाव भरे नीतिपरक संवादों का वर्णन करना चाहिए। यही राजा को उपदेश देने की विधि है ।। १६ ।।
यात्रा के उपलक्ष्य में राजा को दिये जाने वाले उपदेश का स्वरूप
सामण्णे मणुयत्ते धम्माउ' णरीसरत्तणं णेयं । इय मुणिऊणं सुंदर! जत्तो एयम्मि कायव्वो ॥ १७ ॥ इड्ढीण मूलमेसो सव्वासिं जणमणोहराणंति । एसो य जाणवत्तं णेओ संसारजलहिम्मि ।। १८ ।। सामान्ये मनुजत्वे धर्मात् नरेश्वरत्वं ज्ञेयम् । इति ज्ञात्वा सुन्दर ! यत्न एतस्मिन् कर्तव्यः ।। १७ ।। ऋद्धीनां मूलमेषः सर्वासां जनमनोहराणामिति । एषश्च यानपात्रं ज्ञेयः संसारजलधौ ।। १८ ॥
हे श्रेष्ठ पुरुष ! मनुष्य के रूप में सभी मनुष्य समान होते हैं, फिर अपने पुण्यकर्म रूप धर्म से मनुष्य राजा बनता है। यह जानकर धर्म में प्रयत्न करना चाहिए ॥ १७ ॥
लोगों के चित्त को प्रसन्न करने वाली मनुष्य और देवलोक सम्बन्धी १. 'धम्माओ' इति पाठान्तरम् ।
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