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पञ्चाशकप्रकरणम
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[नवम
आरम्भ एव दानं दीनादीनां मनस्तुष्टिजननार्थम्। राज्ञाऽमाघातकारणमनघं गुरुणा स्वशक्त्या ॥ १२ ।।
दीन आदि गरीबों के मनस्तोष के लिए महोत्सव के प्रारम्भ में ही अनुकम्पा दान करना चाहिए तथा सिद्धान्त के ज्ञाता गुरु अपनी शक्ति के अनुसार राजा को उपदेश देकर हिंसा से आजीविका चलाने वाले मछुआरों आदि की आजीविका की व्यवस्था करवाकर उनसे होने वाली हिंसा को रुकवावे तथा राजा से कर आदि माफ करवावे ।। १२ ।।।
साधु को राजा की आज्ञा लेकर उसके देश में रहना चाहिए विसयपवेसे रण्णो उ दंसणं ओग्गहादि कहणा य। अणुजाणावण विहिणा तेणाणुण्णाएँ संवासो।। १३ ॥ विषयप्रवेशे राज्ञस्तु दर्शनमवग्रहादिकथना च। अनुज्ञापनं विधिना तेनानुज्ञाते संवासः ।। १३ ।।
साधुको राजा के देश में प्रवेश करके राजा या राजा की अनुपस्थिति में युवराज से मिलना चाहिए और राजा के पूछने पर कि आपके आने का कारण क्या है - अवग्रह (भूभागग्रहण) की बात करनी चाहिए। साधु को आज्ञा लेकर ही निवास करना चाहिए ।। १३ ।।
राज अवग्रह की याचना से होने वाला लाभ एसा पवयणणीती एवं वसंताण णिज्जरा विउला । इहलोयम्मिवि दोसा ण होति णियमा गुणा होति ।। १४ ।। एषा प्रवचनीतिरेवं वसतां निर्जरा विपुला । इहलोकेऽपि दोषाः न भवन्ति नियमाद् गुणा भवन्ति ।। १४ ।।
इस प्रकार राजा से उसके अवग्रह की याचना करना आगमविधि सम्मत है। इस विधि से राजा के देश में रहने वाले साधुओं को निम्न लाभ होते हैं - १. तीसरे महाव्रत का निरतिचार पालन होने और जिनाज्ञा की आराधना होने से कर्मों की बहुत निर्जरा होती है। २. इस लोक में भी शत्रु-उपद्रव आदि अनर्थ नहीं होते हैं तथा ३. राजा द्वारा साधु का सम्मान करने से लोक में भी साधु सम्माननीय होता है। इस प्रकार से अनेक लाभ होते हैं ॥ १४ ॥
उपदेश से सन्तुष्ट राजा द्वारा जीवहिंसा का निवारण दिठ्ठो पवयणगुरुणा राया अणुसासिओ य विहिणा उ ।
तं नत्थि जण वियरइ कित्तियमिह आमघाउत्ति? ॥ १५ ॥ १. 'उग्गहादि' इति पाठान्तरम् ।
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