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पञ्चाशकप्रकरणम
[ अष्टम
एतस्याः फलं ज्ञेयं परमं निर्वाणमेव नियमेन । सुरनरसुखानि आनुषंगिकाणि इह कृषिपलालमिव ॥ ४५ ।।
इस संघपूजा का मुख्य फल निर्वाण (मोक्ष) ही जानना चाहिए और इसके आनुषंगिक फल देवलोक और मनुष्यलोक के सुख हैं। जिस प्रकार खेती का मुख्य-फल अनाज की प्राप्ति है, किन्तु अनाज के साथ पुआल भी मिलता है, उसी प्रकार संघपूजा का मुख्य-फल मोक्ष है तथा देव और मनुष्यरूप शुभ गति की प्राप्ति आनुसङ्गिक हैं ।। ४५ ।।।
प्रतिष्ठा के बाद के कार्यों का विधान कयमेत्थ पसंगेणं उत्तरकालोचियं इहऽण्णंपि । अणुरूवं कायव्वं तित्थुण्णतिकारगं णियमा ।। ४६ ।। कृतमत्र प्रसङ्गेन उत्तरकालोचितम् इहान्यदपि । अनुरूपं कर्तव्यं तीर्थोन्नतिकारकं नियमात् ।। ४६ ।।
प्रतिष्ठा के अधिकार में प्रसंगवश संघपूजा का विवेचन यहाँ किया गया। प्रतिष्ठा के पश्चात् तीर्थ की उन्नति करने वाले अमारि (हिंसा-निवारण) घोषणा आदि अन्य अनुकूल कार्य भी अवश्य करने चाहिए ।। ४६ ।।
स्वजन और साधर्मिक की विशेषरूप से पूजा उचिओ जणोवयारो विसेसओ णवरि सयणवग्गम्मि । साहम्मियवग्गम्मि य एयं खलु परमवच्छल्लं ।। ४७ ।। उचितो जनोपचारविशेषतो नवरि स्वजनवगें । साधर्मिकवर्गे च एतत्खलु परमवात्सल्यम् ।। ४७ ।।
प्रतिष्ठा के पश्चात् स्वजनवर्ग का विशेष रूप से लोकपूजा रूप सत्कार करना चाहिए, क्योंकि स्वजनवर्ग व्यावहारिक दृष्टि से नजदीक का होता है। स्वजनवर्ग के बाद दूसरे सहधर्मियों का भी लोकपूजा रूप सत्कार करना चाहिए। इससे स्वजनों और सहधर्मियों के प्रति उत्तम वात्सल्यभाव होता है ।। ४७ ॥
अष्टाह्निका महोत्सव का विधान अट्ठाहिया य महिमा सम्मं अणुबंधसाहिगा केई । अण्णे उ तिण्णि दियहे णिओगओ चेव कायव्वो ।। ४८ ॥ अष्टाह्निका च महिमा सम्यगनुबन्धसाधिका केचित् । अन्ये तु त्रीन् दिवसान् नियोगतश्चैव कर्तव्यः ।। ४८ ।।
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