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________________ अष्टम] जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि पञ्चाशक १४५ पूजा न हो गयी हो, अर्थात् संघ की पूजा करने से सभी पूज्यों की पूजा हो जाती है, क्योंकि समस्त लोक में संघ के अतिरिक्त दूसरा अन्य कोई गुणी पूज्य नहीं है ॥ ४१ ।। संघ के एकदेश की पूजा करने से सम्पूर्ण संघ की पूजा तप्पूयापरिणामो हंदि महाविसयमो मुणेयव्वो। तद्देसपूयणम्मिवि देवयपूयादिणाएण ॥ ४२ ॥ तत्पूजापरिणामो हंदि महाविषयो ज्ञातव्यः । तद्देशपूजनेऽपि दैवतपूजादिज्ञातेन ॥ ४२ ।। संघ के एक भाग की पूजा करने पर भी पूजा का परिणाम सम्पूर्ण संघ सम्बन्धी होता है अर्थात् भाव सम्पूर्ण संघ की पूजा करने का ही होता है। जैसे देवता, राजा आदि के एक अंग की पूजा करने से देवता अथवा राजा के सम्पूर्ण शरीर की पूजा करने का भाव होता है ।। ४२ ।। संघ पूजा आसन्नसिद्धिक का लक्षण है आसन्नसिद्धियाणं लिंगमिणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । संघमि चेव पूया सामण्णेणं गुणणिहिम्मि ।। ४३ ।। आसन्नसिद्धिकानां लिङ्गमेतद् जिनवरैः प्रज्ञप्तम् । सङ्घ एव पूजा सामान्येन गुणनिधौ ।। ४३ ॥ किसी प्रकार के भेदभाव के बिना ही गुणों के निधानरूप संघ की पूजा करना आसनसिद्धिक (निकट भविष्य में मोक्ष पाने वाले) का लक्षण है - ऐसा तीर्थङ्करों ने कहा है ।। ४३ ।। संघपूजा की महत्ता एसा उ महादाणं एस च्चिय होति भावजण्णोत्ति । एसा गिहत्थसारो एस च्चिय संपयामूलं ।। ४४ ।। एषा तु महादानम् एषैव भवति भावयज्ञ इति। एषा गृहस्थसार एषैव सम्पदामूलम् ।। ४४ ।। संघपूजा महादान है। यही भावयज्ञ वास्तविक यज्ञ है। यही (संघपूजा) गृहस्थधर्म का सार है और यही सम्पत्ति का मूल है ।। ४४ ।। संघपूजा का फल एतीऍ फलं णेयं परमं णेव्वाणमेव णियमेण । सुरणरसुहाई अणुसंगियाइं इह किसिपलाल व ।। ४५ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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