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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ अष्टम
पुरुष आदि बाह्य आकार रूप संघ नहीं है, अपितु गुणसमुदाय रूप है। इसलिए तीर्थङ्कर भी देशना के पहले गुरुभाव से संघ को नमस्कार करते हैं ।। ३९ ।।
विशेष : प्रवचन अर्थात् प्रकृष्ट वचन जिसे द्वादशांगी के लिए प्रयुक्त किया जाता है और जीव जिससे भवरूप समुद्र को पार करते हैं – वह भी तीर्थ कहलाता है। यहाँ तीर्थ शब्द का अर्थ द्वादशाङ्गी भी होता है। द्वादशाङ्गी का आधार संघ है। संघ के बिना द्वादशाङ्गी नहीं रह सकती। इसलिए द्वादशाङ्गी आधेय और संघ आधार है। आधार और आधेय के अभेद की विवक्षा से प्रवचन और तीर्थ को संघ कहा जाता है ।
तीर्थङ्कर द्वारा संघ को प्रणाम करने का आगम' से समर्थन तप्पुब्विया अरिहया पूजितपूया य विणयकम्मं च । कयकिच्चोवि जह कहं कहेति णमते तहा तित्थं ।। ४० ।। तत्पूर्विका अर्हत्ता पूजितपूजा च विनयकर्म च । कृतकृत्योऽपि यथा कथां कथयति नमति तथा तीर्थम् ।। ४० ।।
प्रवचनवात्सल्य आदि हेतुओं से तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध होता है, अत: तीर्थङ्करत्व में संघ कारण है। लोग बड़े लोगों से पूजित व्यक्ति की पूजा करते हैं। तीर्थङ्कर संघ की पूजा करते हैं - ऐसा सोचकर लोग भी उस संघ की पूजा करते हैं। तीर्थङ्कर बनने में संघ निमित्त होने से उपकारी है। विनय करने से कृतज्ञता धर्म का पालन होता है और धर्म का मूल विनय है - यह सूचित होता है – इन तीन कारणों से तीर्थङ्कर संघ को नमस्कार करते हैं।
तीर्थङ्कर कृतकृत्य होने के बाद भी तीर्थङ्कर नामकर्म के उदय से उचित प्रवृत्ति में संलग्न वे जिस प्रकार धर्मदेशना करते हैं, उसी प्रकार संघ को नमस्कार भी करते हैं ।। ४० ।।
संघपूजा से सभी पूज्यों की पूजा एयम्मि पूजियम्मी पत्थि तयं जं ण पूजियं होइ । भुअणेऽवि पूयणिज्जं ण गुणट्ठाणं ततो अण्णं ।। ४१ ।। एतस्मिन् पूजिते नास्ति तकं यन्न पूजितं भवति । भुवनेऽपि पूजनीयं न गुणस्थानं ततो अन्यम् ।। ४१ ।।
संघ की पूजा होने पर विश्व में कोई ऐसा पूज्य नहीं बचता है, जिसकी १. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ५६७ ।
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