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अष्टम ]
जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि पञ्चाशक
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सुनने से इष्टसिद्धि होती है, उसी प्रकार प्रतिष्ठा में भी मंगलवचनों से इष्टसिद्धि होती है - ऐसा विद्वानों को जानना चाहिए ।। ३६ ।।
मांगलिक शब्द बोलने में मतान्तर अण्णे उ पुण्णकलसादिठावणे उदहिमंगलादीणि । जंपंतऽण्णे सव्वत्थ भावतो जिणवरा चेव ।। ३७ ।। अन्ये तु पूर्णकलशादिस्थापने उदधिमंगलादीनि । जल्पन्ति अन्ये सर्वत्र भावतो जिनवराश्चैव ।। ३७ ।।
कुछ आचार्य पूर्णकलश, मंगलदीप आदि रखते समय समुद्र, अग्नि आदि मंगल शब्द बोलते हैं। कुछ आचार्यों का कथन है कि परमार्थ से जिनेन्द्रदेव ही मंगलरूप हैं, इसलिए प्रत्येक कार्य करने से पूर्व भावपूर्वक जिनेन्द्रदेव के नामों का ही उच्चारण करना चाहिए ।। ३७ ।।
संघपूजा और संघ की महत्ता सत्तीऍ संघपूजा विसेसपूजाउ बहुगुणा एसा । जं एस सुए भणिओ तित्थयराणंतरो संघो । ३८ ।। शक्त्या संघपूजा विशेषपूजातो बहुगुणा एषा । यदेषः श्रुतेर्भणितः तीर्थङ्करानन्तरः संघ: ।। ३८ ।।
प्रतिष्ठा हो जाने के बाद यथाशक्ति श्रमणप्रधान चतुर्विध संघ की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि संघ के एक भाग रूप धर्माचार्य आदि की पूजा से संघपूजा अधिक फलवाली है। इसका कारण यह है कि शास्त्र में कहा गया है कि तीर्थङ्कर के बाद पूज्य के रूप में संघ का स्थान है और फिर धर्माचार्यों का स्थान आता है। तीर्थङ्कर बनने में संघ हेतु होता है। इसलिए धर्माचार्य की पूजा से भी अधिक संघपूजा का महत्त्व है ।। ३८ ॥
संघ की व्याख्या और तीर्थङ्करपूज्यता गुणसमुदाओ संघो पवयण तित्थंति होति एगट्ठा। तित्थगरोऽवि य एयं णमए गुरुभावतो चेव॥ ३९ ॥ गुणसमुदाय: सङ्घः प्रवचनं तीर्थमिति भवन्ति एकार्थाः ।। तीर्थङ्करोऽपि न एतं नमति गुरुभावत एव ।। ३९ ।।
अनेक जीवों के ज्ञानादि गुणों का समूह संघ कहलाता है। यहाँ प्रवचन और तीर्थ - ये दोनों शब्द एकार्थवाची हैं, जिनका अर्थ होता है - संघ। अर्थात् १. 'एणं' इति पाठान्तरम्।
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