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________________ १३८ पञ्चाशकप्रकरणम् [अष्टम यदधिकृत बिम्बस्वामी सर्वेषामेव अभ्युदयहेतुः । तत् तस्य प्रतिष्ठायां तेषां पूजादि अविरुद्धम् ।। १९ ।। प्रस्तुत बिम्ब के स्वामी तीर्थङ्कर भगवान् इन्द्रादि सभी देवों के अभ्युदय के कारण होते हैं, अत: प्रतिष्ठा के समय उन देवताओं की पूजा योग्य है ।। १९ ॥ साहम्मिया य एए महिड्डिया सम्मदिविणो जेण ।। एत्तो च्चिय उचियं खलु एतेसिं एत्थ पूजादी ॥ २० ॥ साधर्मिकाश्च एते महर्द्धिकाः सम्यग्दृष्टयः येन । अतएव उचितं खलु एतेषामत्र पूजादि ।। २० ।। वे दिक्पाल इत्यादि देव साधर्मिक हैं, क्योंकि वे जिनेन्द्रदेव के भक्त हैं। वे महान् ऋद्धिवाले और सम्यग्दृष्टि होते हैं। इसीलिए प्रतिष्ठा में उनका पूजन, सत्कार आदि उचित है ।। २० ॥ अधिवासन का प्रतिपादन तत्तो सुहजोएणं सत्थाणे मंगलेहिँ ठवणा उ । अहिवासणमुचिएणं गंधोदगमादिणा एत्थ ।। २१ ॥ ततः शुभयोगेन स्वस्थाने मङ्गलैः स्थापना तु । अधिवासनमुचितेन गन्धोदकादिना अत्र ।। २१ ।। दिग्देवतादि की पूजा के उपरान्त शुभ मुहूर्त में चन्दन आदि का विलेपन करके पूर्वनिश्चित स्थान पर माङ्गलिक गीतों के बीच जिनप्रतिमा की स्थापना करनी चाहिए। फिर उसको सुगन्धित जलादि से यथोचित वासयुक्त बनाना चाहिए ।। २१ ।। बिम्ब के पास कलशों की स्थापना चत्तारि पुण्णकलसा पहाणमुद्दाविचित्तकुसुमजुया । सुहपुण्णचत्तचउतंतुगोच्छया होति पासेसु ।। २२ ।। चत्वारि पूर्णकलशाः प्रधानमुद्राविचित्रकुसुमयुताः । शुभपूर्णचत्रचतुस्तन्तुकावस्तृताः भवन्ति पाश्र्धेषु ।। २२ ।।। जिनप्रतिमा के चारों ओर जल से परिपूर्ण चार कलश रखने चाहिए। जिनमें स्वर्णादि मुद्रा, रुपया या रत्न डाला गया हो तथा विविध पुष्पों से युक्त हों और उन पी सूत के कच्चे धागे बँधे हुए हों ।। २२ ॥ १. 'सट्ठाणे' इति पाठान्तरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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