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________________ अष्टम] जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि पञ्चाशक १३५ रूप प्रवृत्ति ही करता है। इसलिए ऐसे शिल्पी को मूल्य निश्चित किये बिना नियुक्त नहीं करना चाहिए ॥ ९ ॥ जं जायइ परिणामे असुहं सव्वस्स तं न कायव्वं । सम्मं णिरूविऊणं गाढगिलाणस्स वाऽपत्थं ।। १० ।। यज्जायते परिणामेऽशुभं सर्वस्य तन्न कर्तव्यम् । सम्यक् निरूप्य गाढग्लानस्य वाऽपथ्यम् ।। १० ।। जिस प्रकार किसी अत्यन्त बीमार व्यक्ति को अपथ्य भोजन नहीं देना चाहिए, क्योंकि हमें ज्ञात है कि अपथ्य भोजन उसके लिए हानिकारक है। उसी प्रकार भली-भाँति विचारकर जो कार्य परिणामस्वरूप सबके लिए दारुण हो उसे नहीं करना चाहिए ।। १० ।। आणागारी आराहणेण तीए ण दोसवं होति । वत्थुविवज्जासम्मिवि छउमत्थो सुद्धपरिणामो ॥ ११ ॥ आज्ञाकारी आराधनेन तस्या न दोषवान् भवति । वस्तु विपर्यासेऽपि छद्मस्थः शुद्धपरिणामः ।। ११ ।। उपर्युक्त आज्ञा के अनुसार कार्य करने पर भी छद्मस्थता के कारण यदि कुछ विपरीत हो जाये तो भी आज्ञा के अनुसार कार्य करने वाला दोषी नहीं होता है, क्योंकि वह आज्ञा का आराधक होता है और उसका परिणाम शुद्ध होता है। अर्थघटन : यदि जिनबिम्ब का मूल्य देने पर भी छद्मस्थता के कारण देवद्रव्य के रक्षण के बदले भक्षण हो जाये तो भी उक्त विधि के अनुसार जिनबिम्ब का मूल्य देकर आज्ञा की आराधना करने के कारण दूसरे को देवद्रव्य भक्षण कराने का दोष नहीं लगता है, क्योंकि उसका परिणाम शुद्ध है ।। ११ ।। परिणाम शुद्ध होने का कारण आणापवित्तिओ च्चिय सुद्धो एसो ण अण्णहा णियमा। तित्थगरे बहुमाणा तदभावाओ य. णायव्वो।। १२ ॥ आज्ञाप्रवृत्तित एव शुद्ध एषः न अन्यथा नियमात् । तीर्थङ्करे बहुमानात् तदभावाच्च ज्ञातव्यः ।। १२ ।। आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करने से परिणाम शुद्ध ही होता है। आज्ञा के विपरीत प्रवृत्ति करने से परिणाम शुद्ध नहीं होता है। आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करने वाले को तीर्थङ्कर के प्रति बहुमान होता है और तीर्थङ्कर के प्रति बहुमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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