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पञ्चाशकप्रकरणम्
[अष्टम
इति शुद्धबुद्धियोगात् काले सम्पूज्य कर्तारम् । विभवोचितमर्पयेत् मूल्यम् अनघस्य शुभभावः ॥ ७ ॥
उपर्युक्त प्रकार की शुद्ध बुद्धि से जिनबिम्ब निर्माण कराने वाले जीव को उदारता से शुभ अध्यवसायपूर्वक निदोष शिल्पी का उचित समय पर भोजनादि से सम्मान करके अपने वैभव के अनुसार उसको उचित मूल्य देना चाहिए ।। ७ ।।
दूषित शिल्पी को मूल्य देने की विधि तारिसयस्साभावे तस्सेव हितत्थमुज्जुओ णवरं । णियमेज्ज बिंबमोल्ल जं उचियं कालमासज्ज' ॥ ८ ॥ तादृशकस्याभावे तस्यैव हितार्थमुद्यत: केवलम् । नियमयेद् बिम्बमूल्यं यदुचितं कालमासाद्य ॥ ८ ॥
निदोष चरित्रवाले शिल्पकार न मिलने पर दूषित चरित्रवाले शिल्पकार से मूर्ति निर्माण करवानी पड़े तो उस शिल्पकार के हित के लिए जिनबिम्ब निर्माण के समय उसका मूल्य निर्धारित कर लेना चाहिए, जैसे - इतने बिम्ब इतने रुपयों में तुम्हें बनाने हैं और रुपयों का भुगतान अंशत: किया जायेगा। .
विशेष : ऐसा करने से दूषित शिल्पकार उस द्रव्य का परस्त्रीगमन, जुआ, शराब आदि दुर्व्यसनों में उपयोग नहीं कर सकेगा और इस प्रकार बिम्ब " बनाने से मिला द्रव्य, जो कि देवद्रव्य है, के भक्षण का दोष भी नहीं लगेगा। अंशतः पैसा देने से वह जीवनोपयोगी वस्तुओं को ही खरीद सकेगा ॥ ८ ॥ दूषित शिल्पी को निदोष शिल्पी के बराबर मूल्य देने से होने वाले दोष
देवस्सपरीभोगो अणेगजम्मेसु दारुणविवागो । तंमि स होइ णिउत्तो पावो जो कारओ इहरा ॥ ९ ॥ देवस्वपरिभोगोऽनेकजन्मसु दारुविपाकः । तस्मिन् स भवति नियुक्त: पापो य: कारक इतरथा ।। ९ ॥
यदि दूषित चरित्रवाले शिल्पी से प्रतिमा निर्माण करवाने का मूल्य निश्चित नहीं किया गया तो वह देवद्रव्य का भक्षण करेगा और देवद्रव्य का भक्षण करने से अशुभ-कर्म का बन्ध होगा, जो अनन्त भव-भ्रमण में (नरकादि में) नरंकर दुःखरूप फल देता है। भयंकर अशुभ फलवाले देवद्रव्य भक्षण रूप कार्य में जो शिल्पी मूल्य निर्धारण किये बिना नियुक्त किया जाता है, वह शिल्पी पाप १. 'कालमासस्स' इति पाठान्तरम् ।
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