________________
१३०
पञ्चाशकप्रकरणम्
.
[सप्तम
अन्य जीवों के प्रतिबोध की भावना का फल पडिबुज्झिस्संतऽन्ने भावज्जियकम्मओ य पडिवत्ती । भावचरणस्स जायति एगंतसुहावहा णियमा ॥ ४७ ।। प्रतिभोत्स्यन्तेऽन्ये भावार्जितकर्मतश्च प्रतिपत्तिः । भावचरणस्य जायते एकान्तसुखावहा नियमात् ।। ४७ ।।
सत्ताइसवी गाथानुसार मन्दिर निर्माण से दूसरे लोग भी प्रतिबोध को प्राप्त करेंगे - इस भाव से उपार्जित कर्म से सर्वथा सुखदायी मोक्षसुख देने वाले भाव-चारित्र की नियम से प्राप्ति होती है ।। ४७ ।।
स्थिर शुभचिन्ता का फल अपरिवडियसुहचिंताभावज्जियकम्मपरिणतीए उ। गच्छति इमीइ अंतं ततो य आराहणं लहइ ।। ४८ ।। अप्रतिपतितशुभचिन्ताभावार्जित कर्मपरिणत्यास्तु । गच्छति अस्या अन्तं ततश्च आराधनं लभते ।। ४८ ।।
अट्ठाइसवी गाथा के अनुसार जो धन जिनमन्दिर में लग रहा है, वही मेरा है - ऐसे स्थिर शुभचिन्तारूप भाव से उपार्जित शुभकर्म के विपाक से जीव स्वीकृत चारित्र का अन्त तक निर्वाह करता है अर्थात् आजीवन चारित्र का सम्यक् पालन करता है और विशुद्ध चारित्र का आराधक बनता है, क्योंकि जिसके चारित्र का पतन नहीं हुआ है, वही जीव अन्तिम समय में चारित्र का आराधक बन सकता है ॥ ४८ ॥
निश्चयनय से चारित्र की आराधना णिच्छयणया जमेसा चरणपडिवत्तिसमयतो पभिति ।
आमरणंतमजस्सं संजमपरिपालणं विहिणा ।। ४९ ।। निश्चयनयाद् यदेषा चरणप्रतिपत्तिसमयत: प्रभृति । आमरणन्तमजस्रं संयमपरिपालनं विधिना ।। ४९ ।। .
चारित्र स्वीकार करने से लेकर मृत्युपर्यन्त लगातार विधिपूर्वक संयम का पालन करना निश्चयनय से चारित्राराधना है ।। ४९ ।।
आराधना का फल आराहगो य जीवो सत्तट्ठभवेहिँ पावती णियमा । जंमादिदोसविरहा सासयसोक्खं तु णिव्वाणं ॥ ५० ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org