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________________ सप्तम ] जिनभवननिर्माणविधि पञ्चाशक १२९ उक्त विधि से सुन्दर जिनमन्दिर तैयार करवाकर उसमें विधिपूर्वक तैयार करायी गई जिनप्रतिमा को विधिपूर्वक शीघ्र प्रतिष्ठित कराना चाहिए ।। ४३ ।। जिनमन्दिर निर्माण का फल एयस्स फलं भणियं इय आणाकारिणो उ सङ्घस्स । चित्तं सुहाणुबंध णिव्वातं जिणिदेहिं ॥ ४४ ॥ एतस्य फलं भणितमिति आज्ञाकारिणस्तु श्राद्धस्य । चित्रं शुभानुबन्धं निर्वाणान्तं जिनेन्द्रैः ।। ४४ ।। आप्तवचन का पालन करने वाले श्रावक को मुक्ति न मिलने तक देवगति और मनुष्यगति में अभ्युदय और कल्याण की सतत परम्परा रूप जिनभवन निर्माण का जो फल मिलता है उससे अन्ततः मोक्ष मिलता है, ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है ।। ४४ ।। जिनबिम्बप्रतिष्ठा की भावना का फल जिणबिंब पट्ठावण - भावज्जियकम्मपरिणतिवसेणं । सुगतीइ पट्ठावणमणहं सदि अप्पणो चेव ।। ४५ ।। जिनबिम्बप्रतिष्ठापन भावार्जितकर्मपरिणतिवशेन । सुगतौ प्रतिष्ठापनमनघं सदा आत्मनश्चैव ।। ४५ ।। पच्चीसवीं गाथा में कहे गये जिनबिम्बप्रतिष्ठा के भाव से उपार्जित पुण्यानुबन्धी पुण्य के फल से जीव को सदा देवलोक आदि सुगति की प्राप्ति होती है अर्थात् जब तक मोक्ष न मिले तब तक वह देवलोक या मनुष्यलोक में ही उत्पन्न होता है ।। ४५ ।। साधुदर्शन की भावना का फल तत्थवि य साहुदंसणभावज्जियकम्मतो उ गुणरागो । काले य साहुदंसणमहक्कमेणं गुणकरं तु ।। ४६ ।। तत्रापि च साधुदर्शनभावार्जितकर्मतस्तु गुणरागः । काले च साधुदर्शनम् अथ क्रमेण गुणकरं तु ।। ४६ ।। छब्बीसवीं गाथा में कही गयी साधुदर्शन की भावना से उपार्जित कर्म से सुगति में भी स्वाभाविक गुणानुराग होता है, इसलिए समय आने पर साधु का दर्शन होता है और साधुदर्शन से क्रमशः आत्मा में नये-नये गुण प्रकट होते हैं ।। ४६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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