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________________ १२८ पञ्चाशकप्रकरणम् [ सप्तम गड्डे के ऊँचे-नीचे किनारे पर अपने प्रिय पुत्र को खेलते देखकर उसको चोट न लग जाये इस भय से उसको लाने के लिए माता गई ।। ३९ ।। इतने में उसने बालक की तरफ तेजी से आते एक सर्प को देखा। देखते ही माता ने बचाने के भाव से गड्डे में से बालक को खींच लिया। खींचने में बालक को पीड़ा तो हुई, किन्तु शुद्धभाव होने से इस पीड़ा से अधिक अनर्थ रूप बालक की मृत्यु का निवारण हो गया ।। ४० ।। एयं च एत्थ जुत्तं इहराऽहिगदोसभावतोऽणत्थो । तप्परिहारेऽणत्यो अत्थो च्चिय तत्तओ णेओ ।। ४१ ।। एतच्चात्र युक्तमितरथाधिकदोषभावतोऽनर्थः । तत्परिहारेऽनर्थोऽर्थ एव तत्त्वतो ज्ञेयः ।। ४१ ।। यहाँ बालक को खींचने में पीड़ा होने पर भी माता के द्वारा बालक को खींचना उचित ही है। यदि नहीं खींचती तो सर्प बालक को दंश मार देता और बालक मर जाता। अत: मृत्यु रूप भयंकर अनर्थ से बचाने के लिए खींचने रूप अल्प अनर्थ किया गया है तो भी वह परमार्थ से अर्थ रूप अर्थात् उचित ही । है ।। ४१ ।। यतनाद्वार का उपसंहार एवं निवित्तिपहाणा विण्णेया भावओ अहिंसेयं । जयणावओ उ विहिणा पूजादिगयावि एमेव ।। ४२ ।। एवं निवृत्तिप्रधाना विज्ञेया भावतोऽहिंसेयम् । यतनावतस्तु विधिना पूजादिगताऽपि एवमेव ।। ४२ ।। इस प्रकार भूमिशुद्धि आदि में विधिपूर्वक सावधानी रखने वाले व्यक्ति की जिनमन्दिर-निर्माण सम्बन्धी प्रवृत्ति में जीवहिंसा होने पर भी वह अधिक आरम्भ की क्रियाओं की निवृत्ति कराने वाली होने के कारण परमार्थ से अहिंसा ही है। इसी प्रकार जिनपूजा, जिनमहोत्सव आदि सम्बन्धी प्रवृत्ति भी अधिक जीवहिंसा से निवृत्ति कराने वाली होने के कारण परमार्थ से अहिंसा ही है ।। ४२ ।। जिनमन्दिर निर्माण के बाद की विधि णिप्फाइऊण एवं जिणभवणं सुंदरं तहिं बिंबं । विहिकारियमह विहिणा पइट्ठवेज्जा लडं चेव ॥ ४३ ।। निष्पाद्य एवं जिनभवनं सुन्दरं तस्मिन् बिम्बम् । विधिकारितमथ विधिना प्रतिष्ठापयेद् लघु चैव ।। ४३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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