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________________ १२६ पञ्चाशकप्रकरणम् - [सप्तम उपस्थित रहना भी यतना है। मन्दिर के कार्य में स्वयं उपस्थित रहने से यथायोग्य जीवों की रक्षा करवाते हुए मजदूरों से काम करवाया जा सकता है ।। ३३ ।। यतना की निवृत्ति-प्रधानता का समर्थन एवं च होइ एसा पवित्तिरूवावि भावतो णवरं । अकुसलणिवित्तिरूवा अप्पबहुविसेसभावेणं ।। ३४ ।। एवं च भवति एषा प्रवृत्तिरूपाऽपि भावतः केवलम् । अकुशलनिवृत्तिरूपा अल्पबहुविशेषभावेन ।। ३४ ।। इस प्रकार जिनभवन सम्बन्धी यतना प्रवृत्तिरूप होने पर भी आरम्भ अल्प होने और हिंसा की निवृत्तिरूप भावों के अधिक होने से परमार्थतः निवृत्तिरूप है। भावार्थ : जिनभवन सम्बन्धी यतना में थोड़ी हिंसा होती है, किन्तु साथ ही खेती आदि बड़े-बड़े हिंसा कार्य (आरम्भ) बन्द हो जाते हैं। इसलिए यहाँ आरम्भ कम होता है और अधिक आरम्भ से निवृत्ति होती है। इसलिए यतना परमार्थ से निवृत्तिरूप है ।। ३४ ।। उक्त विषय में आदिजिन का दृष्टान्त एत्तो च्चिय णिदोसं सिप्पादिविहाणमो जिणिंदस्स । लेसेण सदोसंपि हु बहुदोसनिवारणत्तेण ।। ३५ ।। इत एव निर्दोषं शिल्पादिविधानं जिनेन्द्रस्य । लेशेन सदोषमपि खलु बहुदोषनिवारणत्वेन ।। ३५ ।। इसीलिए श्रीआदिनाथ भगवान् ने शिल्पकला, राजनीति आदि का जो उपदेश दिया है, वह थोड़ा दोषयुक्त होने पर भी निर्दोष है, क्योंकि उससे लोगों के अनेक दोष दूर हो गये। विशेष : भगवान् ने शिल्पकला, राजनीति आदि का उपदेश देकर लोगों को शान्तिमय जीवन जीने की कला सिखलायी, जिससे जीवों में परस्पर किसी भी तरह का संघर्ष नहीं हुआ और सभी प्रकार के नीतिविहीन आचार बन्द हो गये। इस प्रकार थोड़ी सी सदोष प्रवृत्ति करके उन्होंने महान् दोषों को दूर किया ।। ३५ ।। ___ भगवान् की शिल्पकलादि की प्रवृत्ति निर्दोष है वरबोहिलाभओ सो सव्वुत्तमपुण्णसंजुओ भयवं । एगंतपरहियरतो विसुद्धजोगो महासत्तो ॥ ३६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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