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सप्तम] जिनभवननिर्माणविधि पञ्चाशक
१२५ • जयणा उ धम्मजणणी जयणा धम्मस्स पालणी चेव । तव्वुड्डिकरी जयणा एगंतसुहावहा जयणा ।। ३० ॥ यतना तु धर्मजननी यतना धर्मस्य पालनी चैव । तवृद्धिकरी यतना एकान्तसुखावहा यतना ।। ३० ।।
यतना (जीवरक्षा में सावधानी) धर्म की माता है। यतना ही धर्म का पालन कराने वाली है, यतना धर्म की वृद्धि करने वाली है और यतना सर्वथा सुखकारिणी है ।। ३० ॥
जयणाएँ वट्टमाणो जीवो सम्मत्तणाणचरणाणं । सद्धाबोहासेवणभावेणाराहगो भणितो ।। ३१ ।। यतनया वर्तमानो जीवः सम्यक्त्वज्ञानचरणानाम् । श्रद्धाबोधासेवनभावेनाराधको भणितः ।। ३१ ।।
जिनेश्वरों ने यतना-पूर्वक कार्य करने वाले जीव को श्रद्धा, बोध और आसेवन के भाव से क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र का आराधक कहा है ।। ३१ ।।
यतना निवृत्तिप्रधान है एसा य होइ णियमा तदहिगदोसविणिवारणी जेण । तेण णिवित्तिपहाणा विण्णेया बुद्धिमंतेहिं ।। ३२ ।। एषा च भवति नियमात् तदधिकदोषविनिवारणी येन । तेन निवृत्तिप्रधाना विज्ञेया बुद्धिमद्भिः ॥ ३२ ॥
यद्यपि यतना (सावधानीपूर्वक की गयी क्रिया) में थोड़ी आरम्भादिक हिंसा तो होती है, इसलिए थोड़ी दोषयुक्त है। फिर भी इससे नियमत: बड़े-बड़े दोष दूर हो जाते हैं। इसलिए बुद्धिशालियों को यतना को निवृत्ति-प्रधान ही जानना चाहिए ।। ३२ ।।
जिनभवन निर्माण में यतना का स्वरूप सा इह परिणयजलदलविसुद्धिरूवा उ होइ णायव्वा । अण्णारंभणिवित्तीऍ अप्पणाऽहिट्ठणं चेवं ।। ३३ ।। सेह परिणतजलदलविशुद्धिरूपा तु भवति ज्ञातव्या । अन्यारम्भनिवृत्त्या आत्मनाऽधिष्ठानं चैवम् ।। ३३ ।।
जिनमन्दिर निर्माण में प्रासुक जल और दल की विशुद्धि यतना है तथा अन्य खेती-बारी आदि आरम्भों का त्याग करके जिनभवन निर्माण के समय
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