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________________ १२४ पञ्चाशकप्रकरणम् [सप्तम स्वाशयवृद्धि का स्वरूप पेच्छिस्सं इत्थमहं वंदणगणिमित्तमागए साहू । कयपुण्णे भगवंते गुणरयणणिही महासत्ते ।। २६ ।। पडिबुज्झिस्संति इहं दट्टण जिणिंदबिंबमकलंकं । अण्णेवि भव्वसत्ता काहिंति ततो परं धम्मं ।। २७ ।। ता एयं मे वित्तं जमेत्थमुवओगमेति अणवरयं । इय चिंताऽपरिवडिया सासयवुड्डी उ मोक्खफला ।। २८ ।। प्रेक्षिष्येऽत्राहं वन्दनकनिमित्तमागतान् साधून् । कृतपुण्यान् भगवतो गुणरत्ननिधीन् महासत्त्वान् ।। २६ ।। प्रतिभोत्स्यन्ते इह दृष्ट्वा जिनेन्द्रबिम्बमकलङ्कम् । अन्येऽपि भव्यसत्त्वा: करिष्यन्ति ततः परं धर्मम् ।। २७ ।। तदेतत् मे वित्तं यदत्र उपयोगमेति अनवरतम् । इति चिन्ताऽप्रतिपतिता स्वाशयवृद्धिस्तु मोक्षफला ।। २८ ।। मैं जिनभवन में वन्दनार्थ आये हुए पुण्यवान्, गुणरूपी रत्नों के धनी महासत्त्व वाले साधु-भगवन्तों को देखूगा ।। २६ ।। जिनमन्दिर में निर्दोष जिनप्रतिमा को देखकर दूसरे भव्यजीव भी प्रतिबोध को प्राप्त करेंगे और श्रेष्ठ धर्म का अनुष्ठान करेंगे ।। २७ ॥ इसलिए जो धन जिनमन्दिर के निर्माण में निरन्तर लगाया जा रहा है यही धन मेरा है, उसके अतिरिक्त पराया धन है -- इस प्रकार के सतत शुभ विचार से शुभ परिणाम की वृद्धि होती है और उससे मोक्षरूपी फल मिलता है ।। २८ ।। ५. यतना द्वार जिनमन्दिर निर्माण में यतना की आवश्यकता जयणा य पयत्तेणं कायव्वा एत्थ सव्वजोगेसु । जयणा उ धम्मसारो जं भणिया वीयरागेहिं ।। २९ ॥ यतना च प्रयत्नेन कर्तव्या अत्र सर्वयोगेषु । यतना तु धर्मसारो यद् भणिता वीतरागैः ।। २९ ।। जिनभवन के निर्माण हेतु लकड़ी लाना, भूमि खोदना आदि कार्यों में जीवहिंसा न हो इसके लिए सावधानी रखनी चाहिए, क्योंकि वीतराग भगवान् ने यथाशक्ति जीवरक्षा में सावधानी को ही धर्म का सार कहा है ।। २९ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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