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सप्तम ]
जिनभवननिर्माणविधि पञ्चाशक
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तथा संयम को स्वीकार करने की इच्छा वाले व्यक्ति को लोगों की अप्रीति का यथाशक्य परिहार अवश्य करना चाहिए। यदि लोगों में व्याप्त अज्ञानता आदि के कारण अप्रीति का त्याग न कर सकें तो अपने को वहाँ से दूर कर लेना चाहिए || १६ ||
२. दलविशुद्धि द्वार कट्ठादीवि दलं इह सुद्धं जं देवतादुववणाओ । अविहिणोवणीयं सयं च कारावियं जण्णो ।। १७ ।।
काष्ठाद्यपि दलमिह शुद्धं यद् देवताद्युपवनात् । न अविधिनोपनीतं स्वयं कारितं यन्न ।। १७ । जिनमन्दिर निर्माण के लिए काष्ठ, पत्थर आदि भी शुद्ध होने चाहिए। व्यन्तर अधिष्ठित जंगल (अथवा घर) इत्यादि में से लाया गया काष्ठादि अशुद्ध है, क्योंकि व्यन्तराधिष्ठित जंगल से काष्ठादि लाने से वह व्यन्तर क्रोधित होकर जिनमन्दिर को नुकसान पहुँचा सकता है। पशुओं को शारीरिक या मानसिक कष्ट देकर अनुचित रीति से लाया गया काष्ठादि अशुद्ध है। स्वयं वृक्ष कटवाकर लाया गया काष्ठादि भी अशुद्ध है ॥ १७ ॥
दल की शुद्धि - अशुद्धि को जानने का उपाय तस्सवि य इमो णेओ सुद्धासुद्धपरिजाणणोवाओ । तक्कहगहणादिम्मी सउणेयरसण्णिवातो जो ॥ १८ ॥ तस्यापि च अयं ज्ञेयः शुद्धाशुद्धपरिज्ञानोपायः । तत्कथाग्रहणादौ शकुनेतरसन्निपातो
यः ।। १८ ।।
उस दल अर्थात् काष्ठ आदि को खरीदने की बात चलती हो या उसको खरीदा जा रहा हो तो उस समय होने वाले शकुन और अपशकुन दल आदि की शुद्धि और अशुद्धि जानने के उपाय हैं। अर्थात् उस समय यदि शकुन हो तो दल आदि शुद्ध है और अपशकुन हो तो उसे अशुद्ध समझना चाहिए ।। १८ ।।
शकुन-अपशकुन का स्वरूप
दादि सुहो सद्दो भरिओ कलसो य े सुंदरा पुरिसा । सुहजोगाइ य सउणो कंदियसद्दादि इतरो
कलशश्च सुन्दरा: क्रन्दितशब्दादि
नन्द्यादिशुभशब्दो भृतः शुभयोगादि च शकुन:
१. 'कट्ठादिवि' इति पाठान्तरम् । २. 'ऽथ' इति पाठान्तरम् ।
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उ ।। १९ ।।
पुरुषाः ।
इतरस्तु ।। १९ ।
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