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________________ १२० पञ्चाशकप्रकरणम् कीलादिशल्ययोगाद् भवन्ति अनिर्वाणादयो दोषाः । एतेषां वर्जनार्थाय यतेत इह सूत्रविधिना तु ।। १३ ।। जिनमन्दिर की भूमि में काँटे, हड्डियाँ आदि अशुभ वस्तु रूप शल्य होने से अशान्ति, धनहानि, असफलता आदि दोष होते हैं। इन दोषों को दूर करने के लिए शास्त्रोक्त विधि से प्रयत्न करना चाहिए || १३ || भूमि भाव से भी शुद्ध होनी चाहिए कायव्वं । उदाहरणं ।। १४ ।। धम्मत्थमुज्जएणं सव्वस्सापत्तियं ण इय संजमोऽवि सेओ एत्थ य भयवं धर्मार्थमुद्यतेन सर्वस्याप्रीतिकं न कर्तव्यम् । इति संयमोऽपि श्रेयोऽत्र च भगवान् उदाहरणम् ।। १४ ।। जिनभवन निर्माण आदि द्वारा कर्मक्षय रूप धर्म करने हेतु उद्यत व्यक्ति को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे किसी को अप्रसन्नता हो। क्योंकि ऐसा करना धर्म के विरुद्ध है। किसी से अप्रीति नहीं करने से चारित्र भी प्रशंसनीय बनता है। इस विषय में भगवान् महावीर का दृष्टान्त दृष्टव्य है || १४ || भगवान् महावीर का दृष्टान्त सो तावसासमाओ तेसिं अप्पत्तियं मुणेऊणं । परमं अबोहिबीयं ततो गतो हंतऽकालेऽवि ।। १५ ।। तापसाश्रमात् तेषां अप्रीतिकं ज्ञात्वा । परमम्अबोधिबीजं ततो गतो हन्त अकालेऽपि ।। १५ ।। स तापसों को मुझसे अप्रीति होती है और यह अप्रीति सम्यग्दर्शन के अभाव का महान् कारण है ऐसा जानकर भगवान् महावीर तापस- आश्रम से चातुर्मास अर्थात् वर्षा ऋतु में ही चल दिये। वर्षाऋतु (चातुर्मास) में साधुओं को विहार नहीं करना चाहिए, फिर भी वे अप्रीति को जानकर विहार कर गये ।। १५ ।। [ सप्तम - सबको अप्रीति का त्याग करना चाहिए इय सव्वेणवि सम्मं सक्कं अप्पत्तियं सइ जणस्स । णियमा परिहरियव्वं इयरंमि सतत्तचिंता उ ॥ १६ ॥ इति सर्वेणापि सम्यक् शक्यं अप्रीतिकं सकृज्जनस्य । नियमात् परिहर्तव्यमितरस्मिन् स्वतत्त्वचिन्ता तु ।। १६ ।। भगवान् महावीर की तरह ही जिनभवन आदि निर्माण की इच्छा वाले १. 'मुज्जुएणं' इति पाठान्तरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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