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सप्तम]
जिनभवननिर्माणविधि पञ्चाशक
१. भूमिशुद्धि द्वार
भूमिशुद्धि के दो प्रकार दव्वे भावे य तहा सुद्धा भूमी पएसऽकीला य । दव्वेऽपत्तिगरहिया अण्णेसिं होइ भावे उ ।। १० ।। द्रव्ये भावे च तथा शुद्धा भूमिः प्रदेशकीला च । द्रव्ये अप्रीतिकरहिता अन्येषां भवति भावे तु ।। १० ।।
द्रव्य और भाव - इन दो प्रकारों से भूमि की शुद्धि होती है। सदाचारी लोगों के रहने लायक हो, भूमि में काँटे, हड्डियाँ आदि न हों - यह द्रव्यशुद्धि है और दूसरे लोगों को कोई आपत्ति न हो - यह भावशुद्धि है ।। १० ।।
अयोग्य प्रदेश में जिनमन्दिर निर्माण से होने वाले दोष अपदेसंमि ण वुड्डी कारवणे जिणघरस्य ण य पूया । साहूणमणणुवाओ किरियाणासो उ अववाए ॥ ११ ॥ सासणगरिहा लोए अहिगरणं कुच्छियाण' संपाए । आणादीया दोसा संसारणिबंधणा घोरा ।। १२ ।। अप्रदेशे न वृद्धिकारणे जिनगृहस्य न च पूजा । साधूनामननुपात: क्रियानाशस्तु अवपाते ।। ११ ।। शासनगर्दा लोके अधिकरणं कुत्सितानां सम्पाते । आज्ञादयो दोषाः संसारनिबन्धना घोराः ।। १२ ।।
अयोग्य क्षेत्र में जिनमन्दिर निर्माण से भूमि एवं परिवेश की अशुद्धता से तथा असदाचारी लोगों के प्रभाव से उस जिनमन्दिर की न तो वृद्धि होती है और न पूजा। धर्मभ्रंश के भय से दर्शनादि के लिए साधु भी वहाँ नहीं आते हैं। यदि वहाँ साधु आते भी हैं तो उनके आचार का नाश होता है ।। ११ ।।
अयोग्य स्थान पर मन्दिरनिर्माण से लोक में जैन-शासन की निन्दा होती है। वहाँ कुत्सित लोगों के आने-जाने से कलह होता है तथा आज्ञाभंग, मिथ्यात्व
और विराधनारूप भयंकर दोष लगते हैं, जो घोर संसार-बन्धन के कारण हैं ।। १२ ।।
भूमि में काँटे होने से होने वाले दोष कीलादिसल्लजोगा होति अणिव्वाणमादिया दोसा ।
एएसि वज्जणट्ठा जइज्ज इह सुत्तविहिणा उ ।। १३ ।। १. 'कुत्थियाण' इति पाठान्तरम्।
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