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११८ पञ्चाशकप्रकरणम्
[ सप्तम जिनमन्दिर निर्माण द्वारा होने वाले हित का स्वरूप तं तह पवत्तमाणं दर्दू केइ गुणरागिणो मग्गं । अण्णे उ तस्स बीयं सुहभावाओ पवज्जति ।। ७ ।। तत्तथा प्रवर्तमानं दृष्ट्वा केचिद् गुणरागिणो मार्गम् । अन्ये तु तस्य बीजं शुभभावात् प्रपद्यन्ते ।। ७ ।।
उस योग्य व्यक्ति को जिनमन्दिर निर्माण करवाते देखकर कुछ गुणानुरागी मोक्षमार्ग को प्राप्त करते हैं तथा दूसरे मुणानुराग रूप शुभपरिणाम से मोक्ष प्राप्ति के लिये बीजस्वरूप सम्यग्दर्शन आदि को प्राप्त करते हैं ।। ७ ।।
जिनशासन सम्बन्धी शुभभाव सम्यग्दर्शन का बीज है जो च्चिय सुहभावो खलु सव्वनुमयम्मि होइ परिसुद्धो । सो च्चिय जायइ बीयं बोहीए तेणणाएण ।। ८ ।। य एव शुभभावः खलु सर्वज्ञानुमते भवति परिशुद्धः । स एव जायते बीजं बोधेः स्तेनज्ञातेन ।। ८ ।।
सर्वज्ञदेव द्वारा स्वीकृत जिनशासन के प्रति जो शुभभाव हैं वे परिशुद्ध हैं और वे ही शुभभाव सम्यग्दर्शन का हेतु बनते हैं। इस विषय में एक चोर का दृष्टान्त है, जिसने फाँसी की सजा पाने के लिए जाते समय मुनियों की धार्मिक क्रियाओं को देखकर उनकी प्रशंसा की और भवान्तर में उसको सत्यबोध रूप फल मिला ।। ८ ।।
जिनभवन निर्माण-विधि जिणभवणकारणविही सुद्धा भूमी दलं च कट्ठाई । भियगाणइसंधाणं सासयवुड्डी य जयणा य ॥ ९ ॥ जिनभवनकारणविधिः शुद्धा भूमि: दलं च काष्ठादि । भृतकानतिसन्धानं स्वाशयवृद्धिश्च यतना च ॥ ९ ॥
१. शुद्धभूमि – जहाँ जिनमन्दिर बनवाना हो वह भूमि निर्दोष होनी चाहिए। २. दलशुद्धि - जिससे जिनमन्दिर बनता है वह काष्ठादि शुद्ध होना चाहिए। ३. भृतकानतिसन्धान - काम करने वालों का शोषण नहीं करना चाहिए। ४. स्वाशयवृद्धि - शुभ अध्यवसायों की वृद्धि करनी चाहिए। ५. यतना अर्थात् जिनमन्दिर बनवाते समय कम से कम दोष लगें, ऐसी सावधानी रखनी चाहिए। यह जिनमन्दिर बनवाने की विधि है।
यह द्वारगाथा है। अगली दसवीं गाथा से उपर्युक्त भूमिशुद्धि आदि पाँच द्वारों का विवेचन होगा ।। ९ ।।
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