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________________ षष्ठ ] स्तवविधि पञ्चाशक ११५ द्रव्यस्तव से भावलेश होने में कारण दव्वत्थयारिहत्तं सम्मं णाऊण भयवओ तंमि । तह उ पयट्टताणं तब्भावाणुमइओ सो चेव ।। ४९ ।। द्रव्यस्तवार्हत्वं सम्यग् ज्ञात्वा भगवतः तस्मिन् । तथा तु प्रवर्तमानानां तद्भावानुमतेः स चैव ।। ४९ ।।। - भगवान् महनीय गुणों से युक्त हैं, इसलिए द्रव्यस्तव के योग्य हैं - ऐसा अच्छी तरह जानकर जो जीव द्रव्यस्तव में विधिपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं, उनकी आंशिक भाव-विशुद्धि अनुभवसिद्ध है। यह भावविशुद्धि जिनगुणों के अनुमोदन से होती है। इस प्रकार द्रव्यस्तव और भावस्तव परस्पर सम्बद्ध हैं ।। ४९ ॥ उपसंहार अलमत्थ पसंगणं उचियत्तं अप्पणो मुणेऊणं । दोवि इमे कायव्वा भवविरहत्थं बुहजणेणं ।। ५० ।। अलमत्र प्रसङ्गेन उचितत्वम् आत्मनो ज्ञात्वा । द्वावपि इमौ कर्तव्यौ भवविरहार्थं बुधजनेन ।। ५० ॥ अब यहाँ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। अपनी क्षमता को जानकर अपने संसार का अन्त करने के लिए बुद्धिमान् लोगों ( साधुओं और श्रावकों ) को द्रव्य और भाव - ये दोनों स्तव करने चाहिए । ५० ।। ॥ इति स्तवविधिर्नाम षष्ठ पञ्चाशकम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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