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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ षष्ठ
(पूजाविधान) करवाया गया था और आवश्यकनियुक्ति में साधुओं के लिए द्रव्यपूजा के उपदेश का विधान है ही। वस्तुतः साधुओं को पुष्पादि से स्वयं पूजा करने का निषेध है, किन्तु दूसरों से करवाने का निषेध नहीं है ।। ४५ ॥
दव्वत्थओवि एवं आणापरतंतभावलेसेण । समणुगउच्चिय णेओऽहिगारिणो सुपरिसुद्धोत्ति ।। ४६ ।। द्रव्यस्तवोऽपि एवमाज्ञापरतन्त्रभावलेशेन । समनुगत एव ज्ञेयोऽधिकारिणः सुपरिशुद्ध इति ।। ४६ ।।
जिस प्रकार भावस्तव द्रव्यस्तव से युक्त है, उसी प्रकार योग्य गृहस्थ द्वारा किया गया परिशुद्ध द्रव्यस्तव भी भावस्तव से युक्त है, ऐसा जिनवचन है। द्रव्यस्तव भगवान के प्रति बहुमान रूप भाव से युक्त होता है अर्थात् द्रव्यस्तव से उत्पन्न होने वाला भाव (अल्पशुभभाव) अल्पभावस्तव रूप है। इस प्रकार द्रव्यस्तव भी भाव से युक्त होने के कारण भावस्तव कहा जाता है ।। ४६ ।।
सुपरिशुद्ध द्रव्यस्तव का लक्षण लोगे सलाहणिज्जो विसेसजोगाउ उण्णइणिमित्तं । जो सासणस्स जायइ सो णेओ सुपरिसुद्धोत्ति ।। ४७ ।। लोके श्लाघनीयो विशेषयोगाद् उन्नतिनिमित्तम् । यः शासनस्य जायते स ज्ञेयः सुपरिशुद्ध इति ।। ४७ ।।
जो लोक में प्रशंसनीय हो और जिसके कारण विशिष्ट भाव उत्पन्न होते हों तथा जिनशासन की प्रभावना होती हो, ऐसा द्रव्यस्तव सुपरिशुद्ध द्रव्यस्तव है ।। ४७ ।।
द्रव्यस्तव में भावलेश के समावेश का प्रमाण तत्थ पुण वंदणाइंमि उचियसंवेगजोगओ णियमा । . अत्थि खलु भावलेसो अणुहवसिद्धो विहिपराणं ।। ४८ ।। तत्र पुन वन्दनादौ उचितसंवेगयोगतो नियमात् । अस्ति खलु भावलेशोऽनुभवसिद्धो विधिपराणाम् ।। ४८ ॥
द्रव्यस्तव में चैत्यवन्दन, स्तुति, प्रणिधान, चन्दनादि से पूजा आदि में अपनी-अपनी भूमिका के अनुरूप उत्साह से अंशतः शुभभाव अवश्य होता है। इसमें आगमोक्त विधिपूर्वक चैत्यवन्दनादि करने वालों का अनुभव प्रमाण है ।। ४८ ।।
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