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षष्ठ ]
स्तवविधि पञ्चाशक
११३
द्रव्यस्तव योग्य है। इसकी स्पष्टता के लिए कूप-खनन का दृष्टान्त दिया जाता है ।। ४२ ॥
विशेष : तीसरे पञ्चाशक की १०वीं गाथा में इस दृष्टान्त का वर्णन किया जा चुका है, अत: वहाँ द्रष्टव्य है।
आवश्यक में जिनभवनादि का भी विधान सो खलु पुप्फाईओ तत्थुत्तो न जिणभवणमाईवि । आईसद्दा वुत्तो तयभावे कस्स पुप्फाई ।। ४३ ।। सः खलु पुष्पादिकः तत्रोक्तः न जिनभवनाद्यपि । आदिशब्दादुक्तः तदभावे कस्य पुष्पादिः ॥ ४३ ।।
प्रश्न : आवश्यकसूत्र में ‘दव्वत्थओ पुप्फाई' कहकर पुष्प, दीप, धूप आदि द्रव्यस्तव हैं – यह कहा गया है, किन्तु यहाँ जिनभवन निर्माण आदि को द्रव्यस्तव कहा है, ऐसा क्यों ?
उत्तर : पुष्पादि शब्द में आदि शब्द से जिनभवन निर्माण आदि का भी सूचन हो जाता है। क्योंकि जिनभवन आदि न हो तो पुष्पादि से पूजा किसकी होगी? ॥ ४३ ॥
साधुओं को द्रव्यस्तव के अनुमोदन का निषेध नहीं णणु तत्थेव य मुणिणो पुप्फाइनिवारणं फुडं अत्थि । अत्थि तयं सयकरणं पडुच्च नऽणुमोयणाईवि ।। ४४ ।। ननु तत्रैव च मुनेः पुष्पादिनिवारणं स्फुटमस्ति । । अस्ति तकं स्वयंकरणं प्रतीत्य नानुमोदनाद्यपि ।। ४४ ।।
प्रश्न : आवश्यक सूत्र में मुनियों द्वारा पुष्पादि से पूजा करने का स्पष्ट निषेध किया गया है तो उनको द्रव्यस्तव कैसे होगा ?
उत्तर : वहाँ साधुओं को स्वयं पुष्पादि पूजा करने का निषेध किया गया है न कि अनुमोदना आदि का भी। साधु सामान्यतया दूसरों से द्रव्यस्तव करवा सकते हैं ।। ४४ ॥
सुव्वइ य वइररिसिणा कारवणंपि हु अणुट्ठियमिमस्स। वायगगंथेसु तहा एयगया देसणा चेव ।। ४५ ।। श्रूयते च वैरऋषिणा कारापणमपि अनुष्ठितमस्य । वाचकग्रन्थेषु तथा एकगता देशना एव ।। ४५ ।। ऐसा सुना जाता है कि वज्र ऋषि के द्वारा भी दूसरों से द्रव्यस्तव
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